महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 25 श्लोक 50-71

पञ्चविंश (25) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचविंश अध्याय: श्लोक 50-71 का हिन्दी अनुवाद


नर्मदा नदी और शूर्पारक क्षेत्र के जल में स्नान करके एक पक्ष तक निराहार रहने वाला मनुष्य दूसरे जन्म में राजकुमार होता है। साधारण भाव से तीन महीने तक जम्बूमार्ग में स्नान करने से तथा इन्द्रियसंयमपूर्वक एकाग्रचित्त हो वहाँ एक ही दिन स्नान करने से भी मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो कोकामुख तीर्थ में स्नान करके अंजलिकाश्रम तीर्थ में जाकर साग का भोजन करता हुआ चीरवस्त्र धारण करके कुछ काल तक निवास करता है, उसे दस बार कन्याकुमारी तीर्थ के सेवन का फल प्राप्त होता है तथा उसे कभी यमराज के घर नहीं जाना पड़ता। जो कन्याकुमारी तीर्थ में निवास करता है, वह मृत्यु के पश्चात देवलोक में जाता है।

महाबाहो! जो एकाग्रचित्त होकर अमावस्या को प्रभासतीर्थ का सेवन करता है, उसे एक ही रात में सिद्धि मिल जाती है तथा वह मृत्यु के पश्चात देवता होता है। उज्जानक तीर्थ में स्नान करके आष्टिषेण के आश्रम तथा पिंगा के आश्रम में गोता लगाने से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य कुल्या में स्नान करके अघमर्षण मंत्र का जप करता है तथा तीन रात तक वहाँ उपवासपूर्वक रहता है उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। जो मानव पिण्डारक तीर्थ में स्नान करके वहाँ एक रात निवास करता है, वह प्रातःकाल होते ही पवित्र होकर अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त कर लेता है। धर्मारण्य से सुशोभित ब्रह्मसर तीर्थ में जाकर वहाँ स्नान करके पवित्र हुआ मनुष्य पुण्डरीक यज्ञ का फल पाता है। मैनाक पर्वत पर एक महीने तक स्नान और संध्योपासना करने से मनुष्य काम को जीतकर समस्त यज्ञों का फल पा लेता है। सौ योजन दूर से आकर कालोदक, नन्दिकुण्ड तथा उत्तरमानस तीर्थ में स्नान करने वाला मनुष्य यदि भ्रूण हत्यारा भी हो तो वह उस पाप से मुक्त हो जाता है। वहाँ नन्दीश्वर की मूर्ति का दर्शन करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। स्वर्गमार्ग में स्नान करने से वह ब्रह्मलोक में जाता है।

भगवान शंकर का श्वशुर हिमवान पर्वत परम पवित्र और संसार में विख्यात है। वह सब रत्नों की खान तथा सिद्ध और चारणों से सेवित है। जो वेदान्त का ज्ञाता द्विज इस जीवन को नाशवान समझकर उस पर्वत पर रहता और देवताओं का पूजन तथा मुनियों को प्रणाम करके विधिपूर्वक अनशन के द्वारा अपने प्राणों को त्याग देता है, वह सिद्ध होकर सनातन ब्रह्मलोक को प्राप्त हो जाता है। जो काम, क्रोध, और लोभ को जीतकर तीर्थों में स्नान करता है, उसे उस तीर्थयात्रा के पुण्य से कोई वस्तु दुर्लभ नहीं रहती। जो समस्त तीर्थों के दर्शन की इच्छा रखता हो, वह दुर्गम और विषम होने के कारण जिन तीर्थों में शरीर से न जा सके, वहाँ मन से यात्रा करे। यह तीर्थ-सेवन का कार्य परम पवित्र, पुण्यप्रद, स्वर्ग की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन और वेदों का गुप्त रहस्य है। प्रत्येक तीर्थ पावन और स्नान के योग्य होता है। तीर्थों का यह माहात्म्य द्विजातियों के, अपने हितैशी श्रेष्ठ पुरुष के, सुहृदों के तथा अनुगत शिष्य के ही कान में डालना चाहिये। सब से पहले महातपस्वी अंगिरा ने गौतम को इसका उपदेश दिया। अंगिरा को बुद्धिमान कश्यप जी से इसका ज्ञान प्राप्त हुआ था। यह कथा महर्षियों के पढ़ने योग्य और पावन वस्तुओं में परम पवित्र है। जो सावधान एवं उत्साहयुक्त होकर सदा इसका पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्गलोक में जाता है। जो अंगिरा मुनि के इस रहस्यमय मत को सुनता है, वह उत्‍तम कुल में जन्म पाता और पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करता है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में अंगिरस तीर्थयात्रा विषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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