प्रथम (1) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 47-65 का हिन्दी अनुवाद
सर्प ने कहा- "व्याध! जैसे यजमान के यहाँ यज्ञ में ऋत्विज् लोग अग्नि में आहुति डालते हैं; किंतु उसका फल उन्हें नहीं मिलता। इसी प्रकार इस अपराध के फल या दण्ड को भोगने में मुझे नहीं सम्मिलित करना चाहिये।" (क्योंकि वास्तव में मृत्यु ही अपराधी है।) भीष्म जी कहते हैं- "राजन! मृत्यु की प्रेरणा से बालक को डँसने वाला सर्प जब बारंबार अपने को निर्दोष और मृत्यु को दोषी बताने लगा, तब मृत्यु देवता भी वहाँ आ पहुँचा और सर्प से इस प्रकार बोला। मृत्यु ने कहा- "सर्प! काल से प्रेरित होकर ही मैंने तुझे इस बालक को डँसने के लिये प्रेरणा दी थी; अत: इस शिशुप्राणी के विनाश में न तो तू कारण है और न मैं ही कारण हूँ। सर्प! जैसे हवा बादलों को इधर-उधर उड़ा ले जाती है, उन बादलों की ही भाँति मैं भी काल के वश में हूँ। सात्त्विक, राजस और तामस जितने भी भाव हैं, वे सब कालात्मक हैं और काल की ही प्रेरणा से प्राणियों को प्राप्त होते हैं। सर्प! पृथ्वी अथवा स्वर्ग लोक में जितने भी स्थावर-जंगम पदार्थ हैं, वे सभी काल के अधीन हैं। यह सारा जगत ही कालस्वरूप है। इस लोक में जितने प्रकार की प्रवृत्ति-निवृत्ति तथा उनकी विकृतियाँ (फल) हैं, ये सब काल के ही स्वरूप हैं। पन्नग! सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, इन्द्र, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, मित्र, पर्जन्य, वसु, अदिति, नदी, समुद्र तथा भाव और अभाव- ये सभी काल के द्वारा ही रचे जाते हैं और काल ही इनका संहार कर देता है। सर्प! यह सब जानकर भी तुम मुझे कैसे दोषी मानते हो? और यदि ऐसी स्थिति में भी मुझ पर दोषारोपण हो सकता है, तब तो तू भी दोषी ही है।" सर्प ने कहा- "मृत्यों! मैं तुम्हें न तो निर्दोष बताता हूँ और न दोषी ही। मैं तो इतना ही कह रहा हूँ कि इस बालक को डँसने के लिये तूने ही मुझे प्रेरित किया था। इस विषय में यदि काल का दोष है अथवा यदि वह भी निर्दोष है तो हो, मुझे किसी के दोष की जाँच नहीं करनी है और जाँच करने का मुझे कोई अधिकार भी नहीं है। परंतु मेरे ऊपर जो दोष लगाया गया है, उसका निवारण तो मुझे जैसे-तैसे करना ही है। मेरे कहने का यह प्रयोजन नहीं है कि मृत्यु का भी दोष सिद्ध हो जाये।" भीष्म जी कहते हैं- "युधिष्ठिर! तदनन्तर सर्प ने अर्जुनक से कहा- "तुमने मृत्यु की बात तो सुन ली न? अब मुझ निरपराध को बन्धन में बाँधकर कष्ट देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है।" व्याध ने कहा- "पन्नग! मैंने मृत्यु की और तेरी- दोनों की बातें सुन लीं; किंतु भुजंगम! इससे तेरी निर्दोषता नहीं सिद्ध हो रही है। इस बालक के विनाश में तू और मृत्यु दोनों ही कारण हो; अत: मैं दोनों को ही कारण या अपराधी मानता हूँ, किसी एक को अपराधी या निरपराध नहीं मानता। श्रेष्ठ पुरुषों को दु:ख देने वाले इस क्रूर एवं दुरात्मा मृत्यु को धिक्कार है और तू तो इस पाप का कारण है ही; इसलिये तुझ पापात्मा का वध मैं अवश्य करूँगा।" मृत्यु ने कहा- "व्याध! हम दोनों काल के अधीन होने के कारण विवश हैं। हम तो केवल उसके आदेश का पालनमात्र करते हैं। यदि तुम अच्छी तरह विचार करोगे तो हम लोगों पर दोषारोपण नहीं करोगे।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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