महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 87-103

एकोनविंश (19) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 87-103 का हिन्दी अनुवाद


अष्टावक्र बोले- 'भद्रे मैं परायी स्त्री के साथ किसी तरह संसर्ग नहीं कर सकता; क्योंकि धर्मशास्त्र के विद्वानों ने परस्त्री-समागम की निन्दा की है। भद्रे! मैं सत्य की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मनोनीत मुनि कुमारी के साथ विवाह करना चाहता हूँ। तुम इसे ठीक समझो। मैं विषयों से अनभिज्ञ हूँ। केवल धर्म के लिये संतान की प्राप्ति मुझे अभीष्ट है; अतः यही मेरे विवाह का उद्देश्य है। ऐसा होने पर मैं पुत्रों द्वारा अभीष्ट लोकों में चला जाऊँगा। इसमें संशय नहीं है। भद्रे! तुम धर्म को समझो और उसे समझकर इस स्वेच्छा से निवृत्त हो जाओ।'

स्त्री बोली- 'ब्रह्मन! वायु, अग्नि, वरुण तथा अन्य देवता भी स्त्रियों को वैसे प्रिय नहीं हैं, जैसा उन्हें काम प्रिय लगता है; क्योंकि स्त्रियाँ स्वभावतः रति की इच्छुक होती हैं। सहस्रों नारियों में कभी कोई एक ऐसी स्त्री मिलती है, जो रतिलोलुप न हो तथा लाखों स्त्रियों में शायद ही कोई एक पतिव्रता मिल सके। ये स्त्रियाँ न पिता को जानती हैं न माता को, न कुल को समझती हैं न भाइयों को। पति, पुत्र तथा देवरों की भी ये परवाह नहीं करती हैं। अपने लिये रति की इच्छा रखकर वे समस्त कुल की मर्यादा का नाश कर डालती हैं, ठीक उसी तरह जैसे बड़ी-बड़ी नदियाँ अपने तटों को ही तोड़-फोड़ देती हैं। इन सब दोषों को समझकर ही प्रजापति ने स्त्रियों के विषय में उपर्युक्त बातें कही हैं।'

भीष्म जी कहते हैं- "राजन! तब ऋषि ने एकाग्रचित्त होकर उस स्त्री से कहा- 'चुप रहो। मन में भोग की रुचि होने पर स्वेच्छाचार होता है। मेरी रुचि नहीं है, अतः मुझसे यह काम नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि मुझसे कोई काम हो तो बताओ।' उस स्त्री ने कहा- 'भगवन! महाभाग! देश और काल के अनुसार आपको अनुभव हो जायेगा। आप यहाँ रहिये, कृतकृत्य हो जाइयेगा।'

युधिष्ठिर! तब ब्रह्मर्षि ने उससे कहा- 'ठीक है, जब तक मेरे मन में यहाँ रहने का उत्साह होगा, तब तक आपके साथ रहूँगा, इस में संशय नहीं है। इसके बाद ऋषि उस स्त्री को जरावस्था से पीड़ित देख बड़ी चिन्ता में पड़ गये और संतप्त-से हो उठे। विप्रवर अष्टावक्र उसका जो-जो अंग देखते थे, वहाँ-वहाँ उनकी दृष्टि रमती नहीं थी, अपितु उसके रूप से विरक्त हो उठती थी। वे सोचने लगे यह नारी तो इस घर की अधिष्ठात्री देवी है। फिर उसे इतना कुरूप किसने बना दिया? इसकी कुरुपता का कारण क्या है? इसे किसी का शाप तो नहीं लग गया। इसकी कुरुपता का कारण जानने के लिये सहसा चेष्टा करना मेरे लिये उचित नहीं है। इस प्रकार व्याकुल चित से एकान्त में बैठकर चिन्ता करते और उसकी कुरुपता का कारण जानने की इच्छा रखते हुए महर्षि का वह सारा दिन बीत चला।

तब उस स्त्री ने कहा- 'भगवन! देखिये, सूर्य का रूप संध्या की लाली से लाल हो गया है। इस समय आपके लिये कौन-सी वस्तु प्रस्तुत की जाये?' तब ऋषि ने उस स्त्री से कहा- 'मेरे नहाने के लिये यहाँ जल ले आओ। स्नान के पश्चात मैं मौन होकर इन्द्रियसंयमपूर्वक संध्योपासना करूँगा।'


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में अष्टावक्र और उत्तर दिशा का संवाद विषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः