महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 39-63

एकोनविंश (19) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 39-63 का हिन्दी अनुवाद


ऐसा कहकर कुबेर ने विप्रवर अष्टावक्र को साथ लेकर अपने भवन में प्रवेश किया और उन्हें पाद्य, अर्घ्य तथा अपना आसन दिया। जब कुबेर और अष्टावक्र दोनों वहाँ आराम से बैठ गये, तब कुबेर के सेवक मणिभद्र आदि यक्ष, गन्धर्व और किन्नर भी नीचे बैठ गये।

उन सब के बैठ जाने पर कुबेर ने कहा- 'आपकी इच्छा हो तो उसे जानकर यहाँ अप्सराएँ नृत्य करें, क्योंकि आपका आतिथ्य सत्कार और सेवा करना हम लोगों का परम कर्तव्य है।' तब मुनि ने मधुर वाणी में कहा- 'तथास्तु- ऐसा ही हो।' तदनन्तर उर्वरा, मिश्रकेषी, रम्भा, उर्वशी, अलम्बुशा, घृताची, चित्रा, चित्रांगदा, रुचि, मनोहरा, सुकेशी, सुमुखी, हासिनी, प्रभा, विद्युता, प्रशमी, दान्ता, विद्योता और रति- ये तथा और भी बहुत-सी शुभलक्षणा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और गन्धर्वगण नाना प्रकार के बाजे बजाने लगे। वह दिव्य नृत्य-गीत आरम्भ होने पर महातपस्वी ऋषि अष्टावक्र भी दर्शक-मण्डली में आ बैठे और वे देवताओं के वर्ष से एक वर्ष तक इसी आमोद-प्रमोद में रमते रहे। तब राजा वैश्रवण (कुबेर) ने भगवान अष्टावक्र से कहा- 'विप्रवर! यहाँ नृत्य देखते हुए आपका एक वर्ष से कुछ अधिक समय व्यतीत हो गया है। ब्रह्मन! यह नृत्य-गीत का विषय जिसे 'गान्धर्व' नाम दिया गया है, बड़ा मनोहारी है; अतः यदि आपकी इच्छा हो तो यह आयोजन कुछ दिन और इसी तरह चलता रहे अथवा विप्रवर! आप जैसी आज्ञा दें वैसा किया जाय। आप मेरे पूजनीय अतिथि हैं। यह घर आपका ही है। आप निस्संकोच भाव से शीघ्र ही सभी कार्यों के लिये हमें आज्ञा दें। हम आपके वशवर्ती किंकर है।'

तब अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान अष्टावक्र ने कुबेर से कहा- 'धनेश्वर! आपने यथोचित रूप से मेरा सत्कार किया है। अब आज्ञा दें, मैं यहाँ से जाऊँगा। धनाधिप! मैं बहुत प्रसन्न हूँ। आपकी सारी बातें आपके अनुरूप ही हैं। भगवान! अब मैं आपकी कृपा से उन महात्मा महर्षि वदान्य की आज्ञा के अनुसार आगे जाऊँगा। आप अभ्युदयशील एवं समृद्धिशाली हों।'

इतना कहकर भगवान अष्टावक्र उत्तर दिशा की ओर मुंह करके चल दिये एवं समूचे कैलास, मन्दराचल और हिमालय पर विचरण करने लगे। उन बड़े-बड़े पर्वतों को लांघकर यतचित्त हो उन्होंने किरात वेशधारी महादेव जी के उत्तम स्थान की परिक्रमा की और उसे मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। फिर नीचे पृथ्वी पर उतर कर वे उस स्थान के माहात्म्य से तत्काल पवित्रात्मा हो गये। तीन बार उस पर्वत की परिक्रमा करके वे उत्तराभिमुख हो समतल भूमि से प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े। आगे जाने पर उन्हें एक दूसरी रमणीय वनस्थली दिखायी दी, जो सभी ऋतुओं के फल-मूलों, पक्षिसमूहों और मनोरम वन प्रान्तों से जहाँ-तहाँ शोभा सम्पन्न हो रही थी। वहाँ भगवान अष्टावक्र ने एक दिव्य आश्रम देखा। उस आश्रम के चारों ओर नाना प्रकार के सुवर्णमय एवं रत्नभूषित पर्वत शोभा पा रहे थे। वहाँ की मणिमयी भूमि पर कई सुन्दर बावड़ियाँ बनी थीं। इनके सिवा और भी बहुत-से सुरम्य दृश्य वहाँ दिखायी देते थे। उन सब को देखते हुए उन भावितात्मा महर्षि का मन वहाँ विशेष आनन्द का अनुभव करने लगा। महर्षि ने उस प्रदेश में एक दिव्य सुवर्णमय भवन देखा, जिसमें सब प्रकार के रत्न जड़े गये थे। वह मनोहर गृह कुबेर के राजभवन से भी सुन्दर, श्रेष्ठ एवं अद्भुत था। वहाँ भाँति-भाँति के मणिमय और सुवर्णमय विशाल पर्वत शोभा पाते थे। अनेकानेक सुरम्य विमान तथा नाना प्रकार के रत्न दृष्टिगोचर होते थे। उस प्रदेश में मन्दिाकिनी नदी प्रवाहित होती थी, जिसके स्रोत में मन्दार के पुष्प बह रहे थे। वहाँ स्वयं प्रकाशित होने वाली मणियाँ अपनी अद्भुत छटा बिखेर रही थीं। वहाँ की भूमि हीरों से जड़ी गयी थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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