सत्रहवां (17) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 52-64 का हिन्दी अनुवाद
215. विष्णुप्रसादितः- भगवान विष्णु ने जिन्हें आराधना करके प्रसन्न किया था वे शिव, 216. यज्ञः- विष्णुस्वरूप (यज्ञो वै विष्णुः), 217. समुद्रः- महासागररूप, 218. वडवामुखः- समुद्र में स्थित बड़वानलरूप, 219. हुताशनसहायः- अग्नि के सखा वायुरूप, 220. प्रशान्तात्मा- शान्तचित्त, 221. हुताशनः- अग्नि, 222. उग्रतेजाः- भयंकर तेज वाले, 223. महातेजाः- महान् तेज से सम्पन्न, 224. जन्यः- संसार के जन्मदाता, 225. वियजकालवित्- विजय के समय का ज्ञान रखने वाले, 226. ज्योतिशामयनम्- ज्योतिषों का स्थान, 227. सिद्धिः- सिद्धिस्वरूप, 228. सर्वविग्रहः- सर्वस्वरूप, 229. शिखी- शिखाधारी गृहस्थस्वरूप, 230. मुण्डी- शिखारहित संन्यासी, 231. जटी- जटाधारी वानप्रस्थ, 232. ज्वाली- अग्नि की प्रज्वलित ज्वाला में समिधा की आहुति देने वाले, 233. मूर्तिजः- शरीर रूप से प्रकट होने वाले, 234. मूर्द्धगः- मूर्द्धा-सहस्रार चक्र में ध्येय रूप से विद्यमान, 235. बली- बलिष्ठ, 236. वेणवी- वंशी बजाने वाले श्रीकृष्ण, 237. पणवी- पणव नामक वाद्य बजाने वाले, 238. ताली- ताल देने वाले, 239. खली- खलिहान के स्वामी, 240. काल-कटंकटः- यमराज की माया को आवृत्त करने वाले, 241. क्षत्रविग्रहमतिः- नक्षत्र-ग्रह-तारा आदि की गति को जानने वाले, 242. गुणबुद्धिः- गुणों में बुद्धि लगाने वाले, 243. लयः- प्रलय के स्थान, 244. अगमः- जानने में आने वाला, 245. प्रजापतिः- प्रजा के स्वामी, 246. विश्वबाहुः- सब ओर भुजा वाले, 247. विभागः- विभागस्वरूप, 248. सर्वगः- सर्वव्यापी, 249. अमुखः- बिना मुखवाला, 250. विमोचनः- संसार-बन्धन से छुड़ाने वाले, 251. सुसरणः- श्रेष्ठ आश्रय, 252. हिरण्य-कवचोभ्दवः- हिरण्यगर्भ की उत्पति का स्थान, 253. मेढ़जः- , 254. बलचानी- बल का संचार करने वाले, 255. महीचारी- सारी पृथ्वी पर विचरने वाले, 256. स्रुतः- सर्वत्र पहुँचे हुए, 257. सर्वतूर्यनिनादी- सब प्रकार के बाजे बजाने वाले, 258. सर्वातोद्यपरिग्रहः- सम्पूर्ण वाद्यों का संग्रह करने वाले, 259. व्यालरूपः- शेषनागस्वरूप, 260. गुहावासी- सब की हृदयगुफ़ा में निवास करने वाले। 261. गुहः- कार्तिकेयस्वरूप, 262. माली-मालाधारी, 263. तरंगवित्- क्षुधा-पिपासा आदि छहों उर्मियों के ज्ञाता साक्षी, 264. त्रिदषः- प्राणियों की तीन दशाओं- जन्म, स्थिति और विनाश के हेतुभूत, 265. त्रिकालधृक्- भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों को धारण करने वाले, 266. कर्मसर्वबन्धविमोचनः- कर्मों के समस्त बन्धनों को काटने वाले, 267. असुरेन्द्राणां बन्धनः- बलि आदि असुरपतियों को बांध लेने वाले, 268. युधिशत्रुविनाशनः- युद्ध में शत्रुओं का विनाश करने वाले, 269. सांख्यप्रसादः- आत्मा और अनात्मा के विवेक रूप सांख्यज्ञान से प्रसन्न होने वाले, 270. दुर्वासाः- अत्रि और अनसूया के पुत्र रुद्रावतार दुर्वासा मुनि, 271. सर्वसाधुनिशेवितः- समस्त साधु पुरुषों द्वारा सेवित, 272. प्रस्कन्दनः- स्थानभ्रष्ट करने वाले, 273. विभागज्ञः- प्राणियों के कर्म और फलों के विभाग को यथोचित रूप से जानने वाले, 274. अतुल्यः- तुलनारहित, 275. यज्ञविभागवित्- यज्ञ सम्बन्धी हविष्य के विभिन्न भागों का ज्ञान रखने वाले, 276. सर्ववासः- सर्वत्र निवास करने वाले, 277. सर्वचारी- सर्वत्र विचरने वाले, 278. दुर्वासाः- अनन्त और अपार होने के कारण जिन को वस्त्र से आच्छादित करना दुर्लभ है, 279. वासवः- इन्द्रस्वरूप, 280. अमरः- अविनाशी, 281. हैमः- हिमसमूह- हिमालयरूप, 282. हेमकरः- सुवर्ण के उत्पादक, 283. अयज्ञः- कर्मरहित, 284. सर्वधारी- सबको धारण करने वाले, 285. धरोतमः- धारण करने वालों में सबसे उत्तम-अखिल धारण करने वाले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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