महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 40-51

सत्रहवां (17) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 40-51 का हिन्दी अनुवाद


82. योगी:- योगनिष्ठ, 83. योज्यः- मनोयोग के आश्रय, 84. महाबीजः- महान कारणरूप, 85. महारेताः- महावीर्यशाली, 86. महाबलः- महान शक्ति से सम्पन्न, 87. सुवर्णरेताः- अग्निरूप, 88. सर्वज्ञः- सब कुछ जानने वाले, 89. सुबीजः- उत्‍तम बीजरूप, 90. बीजवाहनः- जीवों के संस्कार रूप बीज को वहन करने वाले, 91. दशबाहुः- दस भुजाओं से युक्त, 92. अनिमिषः- कभी पलक न गिराने वाले, 93. नीलकण्ठः- जगत की रक्षा के लिये हलाहल विष का पान करके उसके नील चिह्न को कण्ठ में धारण करने वाले, 94. उमापतिः- गिरि राजकुमारी उमा के पतिदेव, 95. विश्वरूपः- जगत्स्वरूप, 96. स्वयं श्रेष्ठः- स्वतःसिद्ध श्रेष्ठता से सम्पन्न, 97. बलवीरः- बल के द्वारा वीरता प्रकट करने वाले, 98. अबलो गणः- निर्बल समुदायरूप, 99. गणकर्ता:- अपने पार्षदगणों का संघटन करने वाले, 100. गणपितः- प्रमथगणों के स्वामी।

101. दिग्वासाः- दिगम्बर, 102. कामः- कमनीय, 103. मन्त्रवित्- मन्त्रवेत्ता, 104. परमो मन्त्रः- उत्कृष्ट मन्त्ररूप, 105. सर्वभावकरः- समस्त पदार्थों की सृष्टि करने वाले, 106. हरः- दुःख हरण करने वाले। 107. कमण्डलुधरः- एक हाथ में कमण्डलु धारण करने वाले, 108. धन्वी- दूसरे हाथ में धनुष धारण करने वाले, 109. बाणहस्तः- तीसरे हाथ में बाण लिये रहने वाले, 110. कपालवान्- चौथे हाथ में कपालधारी, 111. अशनी- पांचवें हाथ में वज्र धारण करने वाले, 112. शतघ्नी- छठे हाथ में शतघ्नी रखने वाले, 113. खड्गी- सातवें में खड्गधारी, 114. पट्टिशी- आठवें में पट्टिश धारण करने वाले, 115. आयुधी- नवे हाथ में अपने सामान्य आयुध त्रिशुल को लिये रहने वाले, 116. महान्- सर्वश्रेष्ठ, 117. स्रुवहस्तः- दसवें हाथ में स्रुवा धारण करने वाले, 118. सुरूपः- सुन्दर रूप वाले, 119. तेजः- तेजस्वी, 120. तेजस्करो निधिः- भक्तों के तेज की वृद्धि करने वाले निधिरूप, 121. उष्णीषी- सिर पर साफा धारण करने वाले, 122. सुवक्त्र:- सुन्दर मुख वाले, 123. उदग्रः- ओजस्वी, 124. विनतः- विनयशील, 125. दीर्घ:- ऊँचे कद वाले, 126. हरिकेषः- ब्रह्मा, विष्णु, महेश स्वरूप, 127. सुतीर्थः- उत्‍तम तीर्थ स्वरूप, 128. कृष्णः- सच्चिदानन्दस्वरूप, 129. श्रृगालरूपः- सियार का रूप धारण करने वाले, 130. सिद्धार्थः- जिनके सभी प्रयोजन सिद्ध हैं।

131. मुण्डः- मूंड़ मुड़ाये हुए, भिक्षु स्वरूप, 132. सर्वशुभंकरः- समस्त प्राणियों का हित करने वाले। 133. अजः- अजन्मा, 134. बहुरूपः- बहुत से रूप धारण करने वाले, 135. गन्धधारीः- कुंकुम और कस्तुरी आदि सुगन्धित पदार्थ धारण करने वाले, 136. कपर्दी:- जटाजूटधारी, 137. ऊर्ध्वरेताः- अखण्डित ब्रह्मचर्य वाले, 138. ऊर्ध्वलिंगः- , 139. ऊर्ध्वशायी:- आकाश में शयन करने वाले, 140. नभःस्थलः- आकाश जिनका वासस्थान है वे, 141. त्रिजटी:- तीन जटा धारण करने वाले, 142. चीनवासाः- वल्कल वस्त्र पहनने वाले, 143. रुद्रः- दुःख को दूर भगाने वाले, 144. सेनापतिः- सेनानायक, 145. विभुः- सर्वव्यापी, 146. अहश्चरः- दिन में विचरने वाले, 147. नक्तंचरः- रात में विचरने वाले, 148. तिग्ममन्युः- तीखे क्रोध वाले, 149. सुवर्चसः- सुन्दर तेज वाले, 150. गजहा- गजरूपधारी महान असुर को मारने वाले, 151. दैत्यहा- अन्धक आदि दैत्यों का वध करने वाले, 152. कालः- मृत्यु अथवा संवत्सर आदि समय, 153. लोकधाता- समस्त जगत का धारण-पोषण करने वाले, 154. गुणाकारः- सद्गुणोंकी खान, 155. सिंहशार्दूलरूपः- सिंह-व्याघ्र आदि का रूप धारण करने वाले, 156. आर्द्रचर्माम्बरावृतः- गजासुर के गीले चर्म को ही वस्त्र बनाकर उससे अपने-आपको आच्छादित करने वाले। 157. कालयोगी:- काल को भी योगबल से जीतने वाले, 158. महानादः- अनाहत ध्वनिरूप, 159. सर्वकामः- सम्पूर्ण कामनाओं से सम्पन्न, 160. चतुष्पथः- जिनकी प्राप्ति के ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और अष्टांगयोग- ये चार मार्ग हैं वे महादेव।

161. निशाचरः- रात्रि के समय विचरने वाले, 162. प्रेतचारी:- प्रेतों के साथ विचरण करने वाले, 163. भूतचारी:- भूतों के साथ विचरने वाले, 164. महेश्वरः- इन्द्र आदि लोकेश्वरों से भी महान्, 165. बहुभूतः- सृष्टिकाल में एक से अनेक होने वाले, 166. बहुधरः- बहुतों को धारण करने वाले, 167. स्वर्भानुः- , 168. अमितः- अनन्त, 169. गतिः- भक्तों और मुक्तात्माओं के प्राप्त होने योग्य, 170. नृत्यप्रियः- ताण्डव नृत्य जिन्हें प्रिय है वे शिव, 171. नित्यनर्तः- निरन्तर नृत्य करने वाले, 172. नर्तकः- नाचने-नचाने वाले, 173. सर्वलालसः- सब पर प्रेम रखने वाले, 174. घोरः- भयंकर रूपधारी, 175. महातपा:- महान तप करने वाले, 176. पाश:- अपनी मायारूपी पाश से बांधने वाले, 177. नित्यः- विनाशरहित, 178. गिरिरुहः- पर्वत पर आरूढ़-कैलाशवासी, 179. नभः- आकाश के समान असंग, 180. सहस्रहस्तः- हज़ारों हाथों वाले, 181. विजयः- विजेता, 182. व्यवसायः- दृढ़निश्चयी, 183. अतन्द्रितः-आलस्यरहित।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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