महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 21-39

सत्रहवां (17) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: सत्रहवां अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मलोक से यह स्तवराज स्वर्गलोक में उतारा गया। पहले इसे तण्डि मुनि ने प्राप्त किया था, इसलिये यह ‘तण्डिकृत सहस्रनामस्तवराज’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। तण्डि ने स्वर्ग से इसे भूतल पर उतारा था। यह सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल तथा समस्त पापों का नाश करने वाला है। महाबाहो! सब स्तोत्रों में उत्‍तम इस सहस्रनामस्तोत्र का मैं आप से वर्णन करूँगा। जो वेदों के भी वेद, उत्तम वस्तुओं में भी परम उत्तम, तेज के भी तेज, तप के भी तप, शान्त पुरुषों में भी परम शान्त, कान्ति की भी कान्ति, जितेन्द्रियों में भी परम जितेन्द्रिय, बुद्धिमानों की भी बुद्धि, देवताओं के भी देवता, ऋषियों के भी ऋषि, यज्ञों के भी यज्ञ, कल्याणों के भी कल्याण, रुद्रों के भी रुद्र, प्रभावशाली ईश्वरों की भी प्रभा (ऐश्वर्य), योगियों के भी योगी तथा कारणों के भी कारण हैं। जिनसे सम्पूर्ण लोक उत्पन्न होते और फिर उन्हीं में विलीन हो जाते हैं, जो सम्‍पूर्ण भूतों के आत्मा हैं, उन्हीं अमित तेजस्वी भगवान शिव के एक हज़ार आठ नामों का वर्णन मुझ से सुनिये। पुरुषसिंह! उसका श्रवणमात्र करके आप अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेंगे।

1. स्थिरः- चंचलतारहित, कूटस्थ एवं नित्य, 2. स्थाणुः- गृह के आधारभूत खम्भ के समान समस्त जगत के आधारस्तम्भ, 3. प्रभः- समर्थ ईश्वर, 4. भीमः- संहारकारी होने के कारण भयंकर, 5. प्रवरः- सर्वश्रेष्ठ, 6. वरदः- अभीष्ट वर देने वाले, 7. वरः- वरण करने योग्य, वरस्वरूप, 8. सर्वात्मा:- सब के आत्मा, 9. सर्वविख्यातः- सर्वत्र प्रसिद्ध, 10. सर्वः- विश्वात्मा होने के कारण सर्वस्वरूप, 11. सर्वकारः- सम्पूर्ण जगत के स्रष्टा, 12. भवः- सब की उत्पति के स्थान, 13. जटी:- जटाधारी, 14. चर्मी:- व्याघ्रचर्म धारण करने वाले, 15. शिखण्डी:- शिखाधारी, 16. सर्वांगः- सम्पूर्ण अंगों से सम्पन्न, 17. सर्वभावनः- सब के उत्पादक, 18. हरः- पापहारी, 19. हरिणाक्षः- मृग के समान विशाल नेत्र वाले, 20. सर्वभूतहरः- सम्पूर्ण भूतों का संहार करने वाले, 21. प्रभुः- स्वामी, 22. प्रवृत्ति:- प्रवृत्तिमार्ग, 23. निवृत्ति:- निवृत्तिमार्ग, 24. नियतः- नियमपरायण, 25. शाश्वतः- नित्य, 26. ध्रुवः- अचल, 27. श्मशानवासी:- श्मशानभूमि में निवास करने वाले, 28. भगवान:- सम्पूर्ण ऐश्वर्य, ज्ञान, यज्ञ, श्री, वैराग्य और धर्म से सम्पन्न, 29. खचरः- आकाश में विचरने वाले, 30. गोचरः- पृथ्वी पर विचरने वाले

31. अर्दनः- पापियों को पीड़ा देने वाले, 32. अभिवाद्यः- नमस्कार के योग्य, 33. महाकर्मा:- महान कर्म करने वाले, 34. तपस्वी:- तपस्या में संलग्न, 35. भूतभावनः- संकल्प मात्र से आकाश आदि भूतों की सृष्टि करने वाले, 36. उन्मतवेशप्रच्छन्नः- उन्मत्त वेश में छिपे रहने वाले, 37. सर्वलोकप्रजापतिः- सम्पूर्ण लोकों की प्रजाओं के पालक, 38. महारूपः- महान रूप वाले, 39. महाकायः- विराप, 40. वृषरूपः- धर्मस्वरूप, 41. महायशा:- महान यशस्वी, 42. महात्मा:- , 43. सर्वभूतात्मा:- सम्पूर्ण भूतों के आत्मा, 44. विश्वरूपः- सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है वे, 45. महाहनुः- विशाल ठोढ़ी वाले, 46. लोकपालः- लोकरक्षक, 47. अन्तर्हितात्मा:- अदृश्य स्वरूप वाले, 48. प्रसादः- प्रसन्नता से परिपूर्ण, 49. हयगर्दभिः- खच्चर जुते रथ पर चलने वाले, 50. पवित्रम्:- शुद्ध वस्तुरूप, 51. महान्:- पूजनीय, 52. नियमः- शौच-संतोष आदि नियमों के पालन के प्राप्त होने योग्य, 53. नियमाश्रितः- नियमों के आश्रयभूत, 54. सर्वकर्मा:- सारा जगत जिनका कर्म है वे, 55. स्वयम्भूतः- नित्यसिद्ध, 56. आदिः- सबसे प्रथम, 57. आदिकरः- आदि पुरुष हिरण्यगर्भ की सृष्टि करने वाले, 58. निधिः- अक्षय ऐश्वर्य के भण्डार, 59. सहस्राक्षः- सहस्रों नेत्र वाले, 60. विशालाक्षः- विशाल नेत्र वाले

61. सोमः- चन्द्रस्वरूप, 62. नक्षत्रसाधकः- नक्षत्रों के साधक, 63. चन्द्रः- चन्द्रमा रूप में आह्लादकारी, 64. सूर्यः- सब की उत्पत्ति के हेतुभूत सूर्य, 65. शनिः- , 66. केतुः- , 67. ग्रहः- चन्द्रमा और सूर्य पर ग्रहण लगाने वाला राहु, 68. ग्रहपतिः- ग्रहों के पालक, 69. वरः- वरणीय, 70. अत्रिः- अत्रि ऋषि स्वरूप, 71. अत्रया नमस्कर्ता:- अत्रिपत्नी अनसूया को दुर्वासा रूप से नमस्कार करने वाले, 72. मृगबाणार्पणः- मृगरूपधारी यज्ञ पर बाण चलाने वाले, 73. अनघः- पापरहित, 74. महातपाः- महान तपस्वी, 75. घोरतपाः- भयंकर तपस्या करने वाले, 76. अदीनः- उदार, 77. दीनसाधकः- शरण में आये हुए दीन-दु:खियों का मनोरथ सिद्ध करने वाले, 78. संवत्सरकरः-संवत्सर का निर्माता, 79. मन्त्रः- प्रणव आदि मन्त्ररूप, 80. प्रमाणम्:- प्रमाणस्वरूप, 81. परमं तपः- उत्कृष्ट तपः स्वरूप।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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