महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 168 श्लोक 24-37

अष्टषष्ट्यधिकशततम (168) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: अष्टषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 24-37 का हिन्दी अनुवाद


उस समय कौरवों द्वारा अपने पुत्र भीष्म को जलांजली देने का कार्य पूरा हो जाने पर भगवती भागीरथी जल के ऊपर प्रकट हुई और शोक से विह्ल हो रोदन एवं विलाप करती हुई कौरवों से कहने लगी- ‘निष्पाप पुत्रगण! मैं जो कहती हूँ, उस बात को यथार्थ रूप से सुनो। भीष्म राजोचित सदाचार से सम्पन्न थे। वे उत्‍तम बुद्धि और श्रेष्ठ कुल से सम्पन्न थे। महान व्रतधारी भीष्म कुरुकुलवृद्ध पुरुषों के सत्कार करने वाले और अपने पिता के बड़े भक्त थे। हाय! पूर्वकाल में जमदग्रिनन्दन परशुराम भी अपने दिव्य अस्त्रों द्वारा जिस मेरे महापराक्रमी पुत्र को पराजित न कर सके, वह इस समय शिखण्डी के हाथ से मारा गया। यह कितने कष्ट की बात है।

राजाओ! अवश्य ही मेरा हृदय पत्थर और लोहे का बना हुआ है, तभी तो अपने प्रिय पुत्र को जीवित न देखकर भी आज यह फट नहीं जाता है। काशीपुरी के स्वयंवर में समस्त भूमण्डल के क्षत्रिय एकत्र हुए थे, किंतु भीष्म ने एकमात्र रथ की ही सहायता से उन सबको जीतकर काशिराज की तीनों कन्याओं का अपहरण किया था। हाय! इस पृथ्वी पर बल में जिसकी समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है, उसी को शिखण्डी के हाथ से मारा गया सुनकर आज मेरी छाती क्यों नहीं फट जाती। जिस महामना वीर ने जमदग्रिनन्दन परशुराम को कुरुक्षेत्र के युद्ध में अनायास ही पीड़ित कर दिया था, वही शिखण्डी के हाथ से मारा गया, यह कितने दु:ख की बात है।'

ऐसी बातें कहकर जब महानदी गंगा जी बहुत विलाप करने लगीं, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वसन देते हुए कहा- ‘भद्रे! धैर्य धारण करो। शुभदर्शने! शोक न करो। तुम्हारे पुत्र भीष्म अत्यन्त उत्तम लोक में गये हैं, इसमें संशय नहीं है। शोभने! ये महातेजस्वी वसु थे, वसिष्ठ जी के शाप-दोष से इन्हें मनुष्ययोनी में आना पड़ा था। अत: इनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। देवी! इन्होंने समरांगण में क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध किया था। ये अर्जुन के हाथ से मारे गये हैं, शिखण्डी के हाथ से नहीं। शुभानने! तुम्हारे पुत्र कुरुश्रेष्ठ भीष्म जब हाथ में धनुष-बाण लिये रहते, उस समय साक्षात इन्द्र भी उन्हें युद्ध में मार नहीं सकते थे। ये तो अपनी इच्छा से ही शरीर त्यागकर स्वर्गलोक में गये हैं। सरिताओं में श्रेष्ठ देवि! सम्पूर्ण देवता मिलकर भी युद्ध में उन्हें मारने की शक्ति नहीं रखते थे। इसलिये तुम कुरुनन्दन भीष्म के लिये शोक मत करो। ये तुम्हारे पुत्र भीष्म वसुओं के स्वरूप को प्राप्त हुए हैं। अत: इनके लिये चिन्ता रहित हो जाओ।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज! जब भगवान श्रीकृष्ण और व्यास जी ने इस प्रकार समझाया, तब नदियों में श्रेष्ठ गंगा जी शोक त्यागकर अपने जल में उतर गयीं। नरेश्वर! श्रीकृष्ण आदि सब नरेश गंगा जी का सत्कार करके उनकी आज्ञा ले वहाँ से लौट आये।


इस प्रकार व्यास निर्मित श्रीमहाभारत शतसाहस्त्री संहिता में अनुशासन पर्व के अन्तर्गत भीष्मस्वर्गारोहण पर्व में दानधर्म तथा भीष्म-युधिष्ठिर संवाद के प्रसंग में भीष्म जी की मुक्ति नामक एक सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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