सप्तषष्ट्यधिकशततम (167) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: सप्तषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद
देव! मैं आपको जानता हूँ। आप वे ही पुरातन ऋषि नारायण हैं, जो नर के साथ चिरकाल तक बदरिकाश्रम में निवास करते रहे हैं। देवर्षि नारद तथा महातपस्वी व्यास जी ने भी मुझसे कहा था कि ये श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात भगवान नारायण और नर हैं, जो मानव शरीर में अवतीर्ण हुए हैं। श्रीकृष्ण! अब आप आज्ञा दीजिये, मैं इस शरीर का परित्याग करूँगा। आपकी आज्ञा मिलने पर मुझे परमगति की प्राप्ति होगी। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- पृथ्वीपालक महातेजस्वी भीष्म जी! मैं आपको (सहर्ष) आज्ञा देता हूँ। आप वसुलोक को जाइये। इस लोक में आपके द्वारा अणुमात्र भी पाप नहीं हुआ है। राजर्षे! आप दूसरे मार्कण्डेय के समान पितृभक्त हैं, इसलिये मृत्यु विनीत दासी के समान आपके वश में हो गयी है। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान के ऐसा कहने पर गंगानन्दन भीष्म ने पांडवों तथा धृतराष्ट्र आदि सभी सुहृदों से कहा- ‘अब मैं प्राणों का परित्याग करना चाहता हूँ। तुम सब लोग इसके लिये मुझे आज्ञा दो। तुम्हें सदा सत्य धर्म के पालन का प्रयत्न करते रहना चाहिये, क्योंकि सत्य ही सबसे बड़ा बल है। भरतवंशियों! तुम लोगों को सबके साथ कोमलता का बर्ताव करना, सदा अपने मन और इन्द्रियों को अपने वश में रखना तथा ब्राह्मण भक्त, धर्मनिष्ठ एवं तपस्वी होना चाहिए। ऐसा कहकर बुद्धिमान भीष्म जी ने अपने सब सुहृदों को गले लगाया और युधिष्ठिर से पुन: इस प्रकार कहा- ‘युधिष्ठिर! तुम्हें सामान्यत: सभी ब्राह्मणों की विशेषत: विद्वानों की और आचार्य तथा ऋत्विजों की सदा ही पूजा करनी चाहिये।'
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत भीष्मस्वर्गारोहण पर्व में दानधर्म विषयक एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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