महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 162 श्लोक 32-50

द्विषष्ट्यधिकशततम (162) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 32-50 का हिन्दी अनुवाद


मनीषी पुरुष धर्म को ही ब्रह्मा जी का ज्येष्ठ पुत्र कहते हैं। जैसे खाने वालों का मन पके हुए फल को अधिक पसंद करता है, उसी प्रकार धर्मनिष्ठ पुरुष धर्म की ही उपासना करते हैं।

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! असाधु पुरुषों का रूप कैसा होता है? साधु पुरुष कौन-सा कर्म करते हैं? साधु और असाधु कैसे होते हैं? आप यह बात मुझे बताइये।

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! असाधु या दुष्ट पुरुष दुराचारी, दुर्धर्ष (उद्दण्ड) और दुर्मुख (कटु वचन बोलने वाले) होते हैं तथा साधु पुरुष सुशील हुआ करते हैं। अब शिष्टाचार का लक्षण बताया जाता है। धर्मात्मा पुरुष सड़क पर, गौओं के बीच में तथा खेत में लगे हुए धान्य के भीतर मल-मूत्र त्याग नहीं करते हैं। साधु पुरुष देवता, पितर, भूत, अतिथि और कुटुम्बी- पाँचों को भोजन देकर शेष अन्न का स्वयं आहार करते हैं। वे खाते समय बातचीत नहीं करते तथा भीगे हाथ लिये शयन नहीं करते हैं। जो लोग अग्नि, वृषभ, देवता, गौशाला, चौराहा, ब्राह्मण, धार्मिक और वृद्ध पुरुषों को दाहिने करके चलते हैं, जो बड़े-बूढ़ों, भार से पीड़ित हुए मनुष्यों, स्त्रियों, जमींदार, ब्राह्मण, गौ तथा राजा को सामने से आते देखकर जाने के लिये मार्ग दे देते हैं, वे सब साधु पुरुष हैं।

सत्पुरुष को चाहिये कि वह संपूर्ण अतिथियों, सेवकों, स्वजनों तथा शरणार्णियों का रक्षक एवं स्वागत करने वाला बने। देवताओं ने मनुष्यों के लिये सबेरे और सांय काल दो ही समय भोजन करने का विधान किया है। बीच में भोजन करने की विधि नहीं देखी जाती। इस नियम का पालन करने से उपवास का ही फल होता है। जैसे होम काल में अग्निदेव होम की ही प्रतीक्षा करते हैं, उसी प्रकार ऋतु काल में स्त्री ऋतु की ही प्रतीक्षा करती है। जो ऋतु काल के सिवा और कभी स्त्री के पास नहीं जाता, उसका वह बर्ताव ब्रह्मचर्य कहा गया है। अमृत, ब्राह्मण और गौ- ये तीनों एक स्थान से प्रकट हुए हैं। अत: गौ तथा ब्राह्मण की सदा विधिपूर्वक पूजा करें। स्वदेश या परदेश में किसी अतिथि को भूखा न रहने दें। गुरु ने जिस काम के लिये आज्ञा दी हो, उसे सफल करके उन्हें सूचित कर देना चाहिये। गुरु के आने पर उन्हें प्रणाम करें और विधिवत पूजा करके उन्हें बैठने के लिए आसन दें।

गुरु की पूजा करने से मनुष्य के यश, आयु और श्री की वृद्धि होती है। वृद्ध पुरुषों का कभी तिरस्कार न करें। उन्हें किसी काम के लिये न भेंजे तथा यदि वे खड़े हों तो स्वयं भी बैठा न रहे। ऐसा करने से उस मनुष्य की आयु क्षीण नहीं होती है। नंगी स्त्री की ओर न देखे, नग्न पुरुषों की ओर भी दृष्टिपात न करे। मैथुन और भोजन सदा एकान्‍त स्‍थान में ही करे। तीर्थों में सर्वोत्तम तीर्थ गुरुजन ही हैं, पवित्र वस्तुओं में हृदय ही अधिक पवित्र है। दर्शनों (ज्ञानों) में परमार्थतत्त्व का ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है तथा संतोष ही सबसे उत्तम सुख है। सांयकाल और प्रात:काल वृद्ध पुरुषों की कही हुई बातें पूरी-पूरी सुननी चाहिये। सदा वृद्ध पुरुषों की सेवा से मनुष्य को शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त होता है। स्वाध्याय और भोजन करते समय दाहिना हाथ उठाना चाहिये तथा मन, वाणी और इन्द्रियों को सदा अपने अधीन रखना चाहिये। अच्छे ढंग से बनायी हुई खीर, हलुआ, खिचड़ी और हविष्य आदि के द्वारा देवताओं तथा पितरों का अष्टका श्राद्ध करना चाहिये। नवग्रहों की पूजा करनी चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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