महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 162 श्लोक 14-31

द्विषष्ट्यधिकशततम (162) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-31 का हिन्दी अनुवाद


ऐसी स्थिति में जो साधुसंग के लिये नित्य उत्कण्ठित रहते हों- उससे कभी तृप्त न होते हों, जिनकी बुद्धि आगम प्रमाण को ही श्रेष्ठ मानती हो, जो सदा संतुष्ट रहते तथा लोभ-मोह का अनुसरण करने वाले अर्थ और काम की उपेक्षा करके धर्म को ही उत्तम समझते हों, ऐसे महापुरुषों की सेवा में रहो और उनसे अपना संदेह पूछो। उन संतों के सदाचार, यज्ञ और स्वाध्याय आदि शुभ-कर्मों के अनुष्ठान में कभी बाधा नहीं पड़ती। उनमें आचार, उसको बताने वाले वेद-शास्त्र तथा धर्म- इन तीनों की एकता होती है।

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! मेरी बुद्धि संशय के अपार समुद्र में डूब रही है। मैं इसके पार जाना चाहता हूँ, किंतु ढूँढने पर भी मुझे इसका कोई किनारा नहीं दिखायी देता। यदि प्रत्यक्ष, आगम और शिष्टाचार- ये तीनों ही प्रमाण हैं तो इनकी तो पृथक-पृथक उपलब्धि हो रही है और धर्म एक है, फिर ये तीनों कैसे धर्म हो सकते हैं?

भीष्म जी ने कहा- राजन! प्रबल दुरात्माओं द्वारा जिसे हानि पहुँचायी जाती है, उस धर्म का स्वरूप यदि तुम इस तरह प्रमाण-भेद से तीन प्रकार का मानते हो तो तुम्हारा यह विचार ठीक नहीं है। वास्तव में धर्म एक ही है, जिस पर तीन प्रकार से विचार किया जाता है- तीनों प्रमाणों द्वारा उसकी समीक्षा की जाती है। यह निश्चय समझो कि धर्म एक ही है। तीनों प्रमाणों द्वारा एक ही धर्म का दर्शन होता है। मैं यह नहीं मानता कि ये तीनों प्रमाण भिन्न-भिन्न धर्म का प्रतिपादन करते हैं। उक्त तीनों प्रमाणों के द्वारा जो धर्ममय मार्ग बताया गया है, उसी पर चलते रहो। तर्क का सहारा लेकर धर्म की जिज्ञासा करना कदापि उचित नहीं है।

भरतश्रेष्ठ! मेरी इस बात में तुम्हें कभी संदेह नहीं होना चाहिये। मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे अंधों और गूंगों की तरह बिना किसी शंका के मानकर उसके अनुसार आचरण करो। अजातशत्रों! अहिंसा, सत्य, अक्रोध और दान- इन चारों का सदा सेवन करो। यह सनातन धर्म है।

महाबाहो! तुम्हारे पिता, पितामह आदि ने ब्राह्मणों के साथ जैसा बर्ताव किया है, उसी का तुम ही अनुसरण करो, क्योंकि ब्राह्मण धर्म के उपदेशक हैं। जो मुर्ख मनुष्य प्रमाण को भी अप्रमाण बनाता है, उसकी बात को प्रामाणिक नहीं मानना चाहिये, क्योंकि वह केवल विवाद करने वाला है। तुम ब्राह्मणों का ही विशेष आदर-सत्कार करके उनकी सेवा में लगे रहो और यह जान लो कि ये संपूर्ण लोक ब्राह्मणों के ही आधार पर टिके हुए हैं।

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जो मनुष्य धर्म की निन्दा करते हैं और जो धर्म का आचारण करते हैं, वे किन लोकों में जाते हैं? आप इस विषय का वर्णन कीजिये।

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! जो मनुष्य रजोगुण और तमोगुण से मलिनचित्त होने के कारण धर्म से द्रोह करते हैं, वे नरक में पड़ते हैं। महाराज! जो सत्य और सरलता में तत्पर होकर सदा धर्म का पालन करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक का सुख भोगते हैं। आचार्य की सेवा करने से मनुष्यों को एकमात्र धर्म का ही सहारा रहता है और जो धर्म की उपासना करते हैं, वे देवलोक में जाते हैं। मनुष्य हों या देवता, जो शरीर को कष्ट देकर भी धर्माचरण में लगे रहते हैं तथा लोभ और द्वेष का त्याग कर देते हैं, वे सुखी होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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