अष्टपन्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: अष्टपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद
एकमात्र ये ही धन के रक्षक और विजय के अभिलाषी हैं। यज्ञ में स्तोता लोग इन्हीं की स्तुति करते हैं। समागम करने वाले विद्वान रथन्तर साम में इन्हीं के गुण गाते हैं। वेदवेत्ता ब्राह्मण वेद के मंत्रों से इन्हीं का स्तवन करते हैं और यजुर्वेदी अध्वर्यु यज्ञ में इन्हीं को हविष्य का भाग देते हैं। भारत! इन्होंने ही पूर्वकाल में ब्रह्मरूप पुरातन गुहा में प्रवेश करके इस पृथ्वी का जल में प्रलय होना देखा है। इन सृष्टि कर्म करने वाले श्रीकृष्ण ने दैत्यों, दानवों तथा नागों को विक्षुब्ध करके इस पृथ्वी का रसातल से उद्धार किया है। ब्रज की रक्षा के लिये गोवर्धन पर्वत उठाने के समय इन्द्र आदि देवताओें ने इनकी स्तुति की थी। भरतनन्दन! ये एकमात्र श्रीकृष्ण ही समस्त पशुओं (जीवों) के अधिपति हैं। इनको नाना प्रकार के भोजन अर्पित किये जाते हैं। युद्ध में ये ही विजय दिलाने वाले माने जाते हैं। पृथ्वी, आकाश और स्वर्गलोक सभी इन सनातन पुरुष श्रीकृष्ण के वश में रहते हैं। इन्होंने कुम्भ में देवताओं (मित्र और वरुण) का वीर्य स्थापित किया था; जिससे महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति हुई बतायी जाती है। ये ही सर्वत्र विचरने वाले वायु हैं, तीव्रगामी अश्व हैं, सर्वव्यापी हैं, अंशुमाली सूर्य और आदि देवता हैं। इन्होंने ही समस्त असुरों पर विजय पायी तथा इन्होंने ही अपने तीन पदों से तीनों लोकों को नाप लिया था। ये श्रीकृष्ण सम्पूर्ण देवताओं, पितरों ओर मनुष्यों के आत्मा हैं। इन्हीं को यज्ञवेत्ताओं का यज्ञ कहा गया है। ये ही दिन और रात का विभाग करते हुए सूर्यरूप में उदित होते हैं। उत्तरायण और दक्षिणायन इन्हीं के दो मार्ग हैं। इन्हीं के ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल में पृथ्वी को प्रकाशित करने वाली किरणें फैलती हैं। वेदवेत्ता ब्राह्मण इन्हीं की सेवा करते हैं और इन्हीं के प्रकाश का सहारा लेकर सूर्यदेव प्रकाशित होते हैं। ये यज्ञकर्ता श्रीकृष्ण प्रत्येक मास में यज्ञ करते हैं। प्रत्येक यज्ञ में वेदज्ञ ब्राह्मण इन्हीं के गुण गाते हैं। ये ही तीन नाभियों, तीन धामों और सात अश्वों से युक्त इस संवत्सर-चक्र को धारण करते हैं। वीर कुन्तीनन्दन! ये महातेजस्वी ओर सर्वत्र व्याप्त रहने वाले सर्वसिंह श्रीकृष्ण अकेले ही सम्पूर्ण जगत को धारण करते हैं। तुम इन श्रीकृष्ण को ही अन्धकारनाशक सूर्य और समस्त कार्यों का कर्ता समझो। इन्हीं महात्मा वासुदेव ने एक बार अग्निस्वरूप होकर खाण्डव वन की सूखी लकड़ियों में व्याप्त हो पूर्णतः तृप्ति का अनुभव किया था। ये सर्वव्यापी प्रभु ही राक्षसों और नागों को जीतकर सब को अग्नि में ही होम देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज