महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 156 श्लोक 18-35

षट्पंचाशदधिकशततम (156) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद


'महान व्रतधारी विप्रवर! हम लोग अश्विनीकुमारों के साथ सोमपान करना नहीं चाहते हैं। अतः इसको छोड़कर आप और जिस काम के लिये मुझे आज्ञा देंगे, उसे अवश्य मैं पूर्ण करूँगा।'

च्यवन बोले- 'देवराज! अश्विनीकुमार भी सूर्य के पुत्र होने के कारण देवता ही हैं। अतः ये आप सब लोगों के साथ निश्चय ही सोमपान कर सकते हैं। देवताओं! मैंने जैसी बात कही है, उसे आप लोग स्वीकार करें। ऐसा करने में ही आप लोगों की भलाई है, अन्यथा इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।'

इन्द्र ने कहा- 'द्विजश्रेष्ठ! निश्चय ही मैं दोनों अश्विनीकुमारों के साथ सोमपान नहीं करूँगा। अन्य देवताओं की इच्छा हो तो उनके साथ सोमरस पीयें। मैं तो नहीं पी सकता।'

च्यवन ने कहा- 'बलसूदन! यदि तुम सीधी तरह मेरी कही हुई बात नहीं मानोगे तो यज्ञ में मेरे द्वारा तुम्हारा अभिमान चूर्ण कर दिया जायेगा, फिर तो तत्काल ही तुम सोमरस पीने लगोगे।'

वायु देवता कहते हैं- तदनन्तर च्यवन मुनि ने अश्विनीकुमारों के हित के लिये सहसा यज्ञ आरम्भ किया। उनके मन्त्र बल से समस्त देवता प्रभावित हो गये। उस यज्ञ कर्म का आरम्भ होता देख इन्द्र क्रोध से मूर्च्छित हो उठे और हाथ में एक विशाल पर्वत लेकर वे च्यवन मुनि की ओर दौड़े। उस समय उनके नेत्र अमर्ष से आकुल हो रहे थे। भगवान इन्द्र ने वज्र के द्वारा भी मुनि पर आक्रमण किया। उनको आक्रमण करते देख तपस्वी च्यवन ने जल का छींटा देकर वज्र और पर्वत सहित इन्द्र को स्तम्भित कर दिया, जड़वत बना दिया। इसके बाद उन महामुनि ने अग्नि में आहुति डालकर इन्द्र के लिये एक अत्यन्त भयंकर शत्रु उत्पन्न किया, जिसका नाम मद था। वह मुँह फैलाकर खड़ा हो गया। उसकी ठोढ़ी का भाग जमीन में सटा हुआ था और ऊपर वाला ओठ आकाश को छू रहा था। उसके मुँह के भीतर एक हज़ार दाँत थे, जो सौ-सौ योजन ऊँचे थे और उसकी भयंकर दाढ़ें दो-दो सौ योजन लंबी थीं।

उस समय इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता उसकी जिह्वा की जद में आ गये, ठीक उसी तरह जैसे महासागर में बहुत-से मत्स्य तिमि नामक महामत्स्य के मुख में पड़ गये हों। फिर तो मद के मुख में पड़े हुए देवताओं ने आपस में सलाह करके इन्द्र से कहा- ‘देवराज! आप विप्रवर च्यवन को प्रणाम कीजिये (इनसे विरोध करना अच्छा नहीं है)। हम लोग निश्चिन्त होकर अश्विनीकुमारों के साथ सोमपान करेंगे।'

यह सुनकर इन्द्र ने महामुनि च्यवन के चरणों में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर च्यवन ने अश्विनीकुमारों को सोमरस का भागी बनाया और अपना यज्ञ समाप्त कर दिया। इसके बाद शक्तिशाली मुनि ने जुआ, शिकार, मदिरा और स्त्रियों में मद को बाँट दिया। राजन! इन दोषों से युक्त मनुष्य अवश्य ही नाश को प्राप्त होते हैं, इसमें संशय नहीं है। अतः इन्हें सदा के लिये दूर से ही त्याग देना चाहिये।

नरेश्वर! यह तुमसे च्यवन मुनि का महान कर्म भी बताया गया। मैं कहता हूँ ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं अथवा तुम बताओ कौन-सा क्षत्रिय ब्राह्मण से श्रेष्ठ है?


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में वायु देवता तथा कार्तवीर्य अर्जुन का संवाद विषयक एक सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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