चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 43-57 का हिन्दी अनुवाद
हर्ष में भरे हुए नाना प्रकार के विहंगम वहाँ के वृक्षों पर बसेरे लेते थे। अनेकानेक वृक्षों के विचित्र वन सुन्दर फूलों से सुशोभित हो मेघों के समान प्रतीत होते थे और उन सबके द्वारा उस आश्रम की अनुपम शोभा हो रही थी। सामने से नाना प्रकार के पुष्पों के परागपुंज से पूरित तथा हाथियों के मद की सुगन्ध से सुवासित मन्द-मन्द अनुकूल वायु आ रही थी, जिसमें दिव्य रमणियों के मधुर गीतों की मनोरम ध्वनि विशेषरूप से व्याप्त थी। वीर! पर्वत शिखरों से झरते हुए झरनों की झर-झर ध्वनि, विहंगमों के सुन्दर कलरव, हाथियों की गर्जना, किन्नरों के उदार (मनोहर) गीत तथा सामगान करने वाले सामवेदी विद्वानों के मंगलमय शब्द उस वन-प्रान्त को संगीतमय बना रहे थे। जिसके विषय में दूसरे लोग मन से सोच भी नहीं सकते, ऐसी अचिन्त्य शोभा से सम्पन्न वह पर्वतीय भाग अनेकानेक सरोवर से अलंकृत तथा फूलों से आच्छादित विशाल अग्निशालाओं द्वारा विभूषित था। नरेश्वर! पुण्यसलिला जाह्नवी सदा उस क्षेत्र की शोभा बढ़ाती हुई मानो उसका सेवन करती थी। अग्नि के समान तेजस्वी तथा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ अनेकानेक महात्माओं से वह स्थान विभूषित था। वहाँ चारों और श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करते थे। उनमें से कुछ लोग केवल वायु पीकर रहते थे। कुछ लोग जल पीकर जीवन धारण करते थे। कुछ लोग निरन्तर जप में संलग्न रहते थे। कुछ साधक मैत्री-मुदिता आदि साधनाओं द्वारा अपने चित्त का शोधन करते थे। कुछ योगी निरन्तर ध्यानमग्न रहते थे। कोई अग्निहोत्र का धूआं, कोई गरम-गरम सूर्य की किरणें और कोई दूध पीकर रहते थे। कुछ लोग गोसेवा का व्रत लेकर गौओं के ही साथ रहते और विचरते थे। कुछ लोग खाद्य वस्तुओं को पत्थर से पीसकर खाते थे और कुछ लोग दांतों से ही ओखली-मुसली का काम लेते थे। कुछ लोग किरणों और फेनों का पान करते थे तथा कितने ही ऋषि मृगचर्या का व्रत लेकर मृगों के ही साथ रहते और विचरते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज