चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 156-172 का हिन्दी अनुवाद
कभी उर्ध्वकेश (ऊपर उठे हुए बाल वाले), कभी महालिंग, कभी नंग-धड़ंग और कभी विकराल नेत्रों से युक्त हो जाते हैं। कभी गोरे, कभी सांवले, कभी काले, कभी सफ़ेद, कभी धूएं के समान रंग वाले एवं लोहित दिखायी देते हैं। कभी विकृत नेत्रों से युक्त होते हैं। कभी सुन्दर विशाल नेत्रों से सुशोभित होते हैं। कभी दिगम्बर दिखायी देते हैं और कभी सब प्रकार के वस्त्रों से विभूषित होते हैं। वे रूपरहित हैं। उनका स्वरूप ही सबका आदिकरण है। वे रूप से अतीत हैं। सबसे पहले जिसकी सृष्टि हुई है, जल उन्हीं का रूप है। इन अजन्मा महादेव जी का स्वरूप आदि-अन्त से रहित है। उसे कौन ठीक-ठीक जान सकता है। भगवान शंकर प्राणियों के हृदय में प्राण, मन एवं जीवात्मा रूप से विराजमान हैं। वे ही योगस्वरूप, योगी, ध्यान तथा परमात्मा हैं। भगवान महेश्वर भक्तिभाव से ही गृहीत होते हैं। वे बाजा बजाने वाले गीत गाने वाले हैं। उनके लाखों नेत्र हैं। वे एकमुख, द्विमुख, त्रिमुख और अनेक मुख वाले हैं। बेटा! तुम उन्हीं के भक्त बनकर उन्हीं में आसक्त रहो। सदा उन्हीं पर निर्भर रहो और उन्हीं के शरणागत होकर महादेव जी का निरन्तर भजन करते रहो। इससे तुम्हें मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति होगी। शत्रुसूदन श्रीकृष्ण! माता का वह उपदेश सुनकर तभी से महादेव जी के प्रति मेरी सुदृढ़ भक्ति हो गयी। तदनन्तर! मैंने तपस्या का आश्रय ले भगवान शंकर को संतुष्ट किया। एक हज़ार वर्ष तक केवल बायें पैर के अंगुठे के अग्रभाग के बल पर मैं खड़ा रहा। पहले तो एक सौ वर्षों तक मैं फलाहारी रहा। दूसरे शतक में गिरे-पड़े सूखे पत्ते चबाकर रहा और तीसरे शतक में केवल जल पीकर ही प्राण धारण करता रहा। फिर शेष सात सौ वर्षों तक केवल हवा पीकर रहा। इस प्रकार मैंने एक सहस्र दिव्य वर्षों तक उनकी आराधना की। तदनन्तर सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान महादेव मुझे अपना अनन्य भक्त जानकर संतुष्ट हुए और मेरी परीक्षा लेने लगे। उन्होंने सम्पूर्ण देवताओं से घिरे हुए इन्द्र का रूप धारण करके पदार्पण किया। उस समय उनके सहस्र नेत्र शोभा पा रहे थे। उन महायशस्वी इन्द्र के हाथ में वज्र प्रकाशित हो रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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