महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 120-136

चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 120-136 का हिन्दी अनुवाद


तात! इसीलिये वह आटे का रस मुझे प्रिय नहीं लगा, अत: मैंने बाल स्‍वभाववश ही अपनी माता से कहा- 'मां! तुमने मुझे जो दिया है, यह दूध-भात नहीं है।' माधव! तब मेरी माता दु:ख और शोक में मग्‍न हो पुत्रस्‍नेहवश मुझे हृदय से लगाकर मेरे मस्‍तक को सूंघती हुई मुझसे बोली- 'बेटा! जो सदा वन में रहकर कन्‍द, मूल और फल खाकर निर्वाह करते हैं, उन पवित्र अन्‍त:करण वाले मुनियों को भला दूध-भात कहाँ से मिल सकता है? जो बालखिल्‍यों द्वारा सेवित दिव्‍य नदी गंगा का सहारा लिये बैठे हैं, पर्वतों और वनों में रहने वाले उन मुनियों को दूध कहाँ से मिलेगा?

जो पवित्र हैं, वन में ही होने वाली वस्‍तुएं खाते हैं, वन के आश्रमों में ही निवास करते हैं, ग्रामीण आहार से निवृत्त होकर जंगल के फल-फूलों का ही भोजन करते हैं, उन्‍हें दूध कैसे मिल सकता है? बेटा! यहाँ सुरभी गाय की कोई संतान नहीं है, अत: इस जंगल में दूध का सर्वथा अभाव है। नदी, कन्‍दरा, पर्वत और नाना प्रकार के तीर्थों में तपस्‍यापूर्वक जप में तत्‍पर रहने वाले हम ऋषि-मुनियों के भगवान शंकर ही परम आश्रय हैं। वत्‍स! जो सबको वर देने वाले, नित्‍य स्थिर रहने वाले और अविनाशी ईश्‍वर हैं, उन भगवान विरुपाक्ष को प्रसन्‍न किये बिना दूध-भात और सुखदायक वस्‍त्र कैसे मिल सकते हैं? बेटा! सदा सर्वभाव से उन्‍हीं भगवान शंकर की शरण लेकर उनकी कृपा से इच्‍छानुसार फल पा सकोगे।'

शत्रुसूदन! जननी की वह बात सुनकर उसी समय मैंने उनके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर माता जी से यह पूछा- 'अम्‍बे! ये महादेव जी कौन हैं? और कैसे प्रसन्‍न होते हैं? वे शिव देवता कहाँ रहते हैं और कैसे उनका दर्शन किया जा सकता है? मेरी मां! यह बताओ कि शिव जी का रूप कैसा है? वे कैसे संतुष्‍ट होते हैं? उन्‍हें किस तरह जाना जाये अथवा वे कैसे प्रसन्‍न होकर मुझे दर्शन दे सकते हैं?'

सच्चिदानन्‍दस्‍वरूप गोविन्‍द! सुरश्रेष्‍ठ मधुसूदन! मेरे इस प्रकार पूछने पर मेरी पुत्रवत्‍सला माता के नेत्रों में आंसू भर आये। वह मेरा मस्‍तक सूंघकर मेरे सभी अंगों पर हाथ फेरने लगी और कुछ दीन-सी होकर यों बोली। माता ने कहा- 'जिन्‍होंने अपने मन को वश में नहीं किया है, ऐसे लोगों के लिये महादेव जी का ज्ञान होना बहुत कठिन है, उनका मन से धारण करने में आना मुश्किल है। उनकी प्राप्ति के मार्ग में बड़े-बड़े विघ्‍न हैं। दुस्‍तर बाधाएं हैं। उनका ग्रहण और दर्शन होना भी अत्‍यन्‍त कठिन है। मनीषी पुरुष कहते हैं कि भगवान शंकर के अनेक रूप हैं। उनके रहने के विचित्र स्‍थान हैं और उनका कृपा प्रसाद भी अनेक रूपों में प्रकट होता है। पूर्व काल में देवाधिदेव महादेव ने जो-जो रूप धारण किये हैं, ईश्‍वर के उस शुभ चरित्र को कौन यथार्थ रूप से जानता है? वे कैसे क्रीड़ा करते हैं और किस तरह प्रसन्‍न होते हैं? यह कौन समझ सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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