महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 146 श्लोक 53-61

षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर: षट्चत्वारिंशदधिकशततमअध्याय: श्लोक 53-61 का हिन्दी अनुवाद


जो प्रतिदिन शीघ्रतापूर्वक मर्यादा का बोध कराने वाली बुद्धि के द्वारा दुष्कर व्रत का आचरण करती है, पति में ही मन लगाती है और निरन्तर पति के हित-साधन में लगी रहती है, उसे पतिव्रत-धर्म के पालन का सुख प्राप्त होता है। जो साध्वी नारी पतिव्रत-धर्म का पालन करती हुई पति की सेवा में लगी रहती है, उसका यह कार्य महान पुण्य, बड़ी भारी तपस्या और सनातन स्वर्ग का साधन है। पति ही नारियों का देवता, पति ही बन्धु-बान्धव और पति ही उनकी गति है।

नारी के लिये पति के समान न दूसरा कोई सहारा है और न दूसरा कोई देवता। एक ओर पति की प्रसन्नता और दूसरी ओर स्वर्ग- ये दोनों नारी की दृष्टि में समान हो सकते हैं या नहीं, इसमें संदेह है।

मेरे प्राणनाथ महेश्वर! मैं तो आपको अप्रसन्न रखकर स्वर्ग को नहीं चाहती। पति दरिद्र हो जाये, किसी रोग से घिर जाये, आपत्ति में फँस जाये, शत्रुओं के बीच में पड़ जाये अथवा ब्राह्मण के शाप से कष्ट पा रहा हो, उस अवस्था में वह न करने योग्य कार्य, अधर्म अथवा प्राणत्याग की भी आज्ञा दे दे, तो उसे आपत्ति काल का धर्म समझकर निःशंकभाव से तुरंत पूरा करना चाहिये।

देव! आपकी आज्ञा से मैंने यह स्त्री धर्म का वर्णन किया है। जो नारी ऊपर बताये अनुसार अपना जीवन बनाती है, वह पातिव्रत-धर्म के फल की भागिनी होती है।

भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! पार्वती जी के द्वारा इस प्रकार नारी धर्म का वर्णन सुनकर देवाधिदेव महादेव जी ने गिरिराजकुमारी का बड़ा आदर किया और वहाँ समस्त अनुचरों के साथ आये हुए लोगों को जाने की आज्ञा दी। तब समस्त भूतगण, सरिताएँ गन्धर्व और अप्सराएँ भगवान शंकर को सिर से प्रणाम करके अपने-अपने स्थान को चली गयीं।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में उमा महेश्वर संवाद प्रसंग में स्त्रीधर्म का वर्णन विषयक एक सौ छियालिसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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