महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 श्लोक 41-60

पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद


फिर पुण्यकर्मों के क्षीण होने पर यदि वह मृत्यु लोक में जन्म लेता है, तो उसके ऊपर बाधाओं का आक्रमण कम होता है। वह निर्भय हो सुख से अपनी उन्नति करता है। सुख का भागी होकर आयास और उद्वेग से रहित जीवन व्यतीत करता है। देवि! यह सत्पुरुषों का मार्ग है, जहाँ किसी प्रकार की विघ्न-बाधा नहीं आने पाती है।

पार्वती जी ने पूछा- भगवन! इन मनुष्यों में से कुछ तो ऊहापोह में कुशल, ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, बुद्धिमान और अर्थनिपुण देखे जाते हैं। देव! कुछ दूसरे मानव ज्ञान-विज्ञान से शून्य और दुर्बुद्धि दिखायी देते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य कौन-सा विशेष कर्म करने से बुद्धिमान हो सकता है? विरूपाक्ष! मनुष्य मन्दबुद्धि कैसे होता है? सम्पूर्ण धर्मज्ञों में श्रेष्ठ महादेव! आप मेरे इस संदेह का निवारण कीजिये। देव! कुछ लोग जन्मान्ध, कुछ रोग से पीड़ित और कितने ही नपुंसक देखे जाते हैं। इसका क्या कारण है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहादेव जी ने कहा- देवि! जो कुशल मनुष्य सिद्ध, वेदवेत्ता और धर्मज्ञ ब्राह्मणों से प्रतिदिन उनकी कुशल पूछते हैं और अशुभ कर्म का परित्याग करके शुभकर्म का सेवन करते हैं, वे परलोक में स्वर्ग और इहलोक में सदा सुख पाते हैं। ऐसे आचरण वाला पुरुष यदि स्वर्ग से लौटकर फिर मनुष्य योनि में आता है तो वह मेधावी होता है। शास्त्र उसकी बुद्धि का अनुसरण करता है, अतः वह सदा कल्याण का भागी होता है। जो परायी स्त्रियों के प्रति सदा दोषभरी दृष्टि डालते हैं, उस दुष्ट स्वभाव के कारण वे जन्मान्ध होते हैं। जो दूषित हृदय से किसी नंगी स्त्री की ओर निहारते हैं, वे पापकर्मी मनुष्य इस लोक में रोग से पीड़ित होते हैं। जो दुराचारी, दुर्बुद्धि एवं मूढ़ मनुष्य पशु आदि की योनि में मैथुन करते हैं, वे पुरुषों में नपुंसक होते हैं। जो पशुओं की हत्या कराते, गुरु की शय्या पर सोते और वर्णसंकर जाति की स्त्रियों से समागम करते हैं, वे मनुष्य नपुंसक होते हैं।

पार्वती ने पूछा- देवश्रेष्ठ! कौन सदोष कर्म हैं और कौन निर्दोष, कौन-सा कर्म करके मनुष्य कल्याण का भागी होता है?

श्रीमहेश्वर ने कहा- जो श्रेष्ठ मार्ग को पाने की इच्छा रखकर सदा ही ब्राह्मणों से उसके विषय में पूछता है, धर्म का अन्वेषण करता और सद्गुणों की अभिलाषा रखता है, वही स्वर्गलोक के सुख का अनुभव करता है। देवि! ऐसा मनुष्य यदि कभी मानव योनि को प्राप्त होता है तो वहाँ प्रायः मेधावी एवं धारण शक्ति से सम्पन्न होता है। देवि! यह सत्पुरुषों का धर्म है, उसे कल्याणकारी मानना चाहिये। मैंने मनुष्यों के हित के लिये इस धर्म का तुम्हें भलीभाँति उपदेश किया है।

पार्वती ने पूछा- भगवन! दूसरे बहुत-से ऐसे मनुष्य हैं, जो अल्पबुद्धि होने के कारण धर्म से द्वेष करते हैं। वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पास नहीं जाना चाहते हैं। कुछ मनुष्य व्रतधारी, श्रद्धालु और धर्मपरायण होते हैं तथा दूसरे व्रतहीन, नियमभ्रष्ट तथा राक्षसों के समान होते हैं। कितने ही यज्ञशील होते हैं और दूसरे मनुष्य होम और यज्ञ से दूर ही रहते हैं। किस कर्मविपाक से मनुष्य इस प्रकार परस्पर विरोधी स्वभाव के हो जाते हैं? यह मुझे बताइये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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