महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-68

पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-68 का हिन्दी अनुवाद


पाशुपत योग का वर्णन तथा शिवलिंग पूजन का माहात्म्य

उमा ने पूछा- तीन नेत्रधारी! त्रिदशश्रेष्ठ! देवेश्वर! त्र्यम्बक! त्रिपुरों का विनाश और कामदेव के शरीर को भस्म करने वाले गंगाधर! दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले त्रिशूलधारी! शत्रुसूदन! लोकपालों को भी वर देने वाले लोकपालेश्वर! आपको नमस्कार है। आपने मेरे पूछने पर सुनने के लिये उत्सुक हुई मुझ दासी को वह उत्तम अध्यात्म ज्ञान बताया है, जो अनेक शाखाओं से युक्त, अनन्त, अतर्क्य, अविज्ञेय और सांख्य योग से युक्त है। प्रभो! इस समय मैं आपसे आपका ही सायुज्य सुनना चाहती हूँ। ये भक्तजन आप परमेष्ठी की परिचर्या कैसे करते हैं? उनका आचार कैसा होता है? किस साधन से आप संतुष्ट होते हैं? साक्षात आपके द्वारा प्रतिपादित होने पर यह विषय मुझे अधिक प्रसन्नता प्रदान करता है।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! मैं प्रसन्नतापूर्वक तुमसे अपने अद्भुत सायुज्य का वर्णन करता हूँ, जिससे युक्त हो वे परम योगी पुरुष फिर संसार में नहीं लौटते हैं। पहले के मुमुक्षुओं द्वारा भी मैं अव्यक्त और अचिन्त्य ही रहा हूँ। मैंने ही सांख्य और योग की सृष्टि की है। समस्त चराचर जगत को भी मैंने ही उत्पन्न किया है। मैं पूजनीय ईश्वर हूँ। मैं ही अविनाशी सनातन पुरुष हूँ। मैं प्रसन्न होकर अपने भक्तों को अमरत्व भी देता हूँ। देवता तथा तपोधन मुनि भी मुझे अच्छी तरह नहीं जानते हैं।

देवि! तुम्हारा प्रिय करने के लिये मैं अपनी विभूति बतलाता हूँ। शुभे! देवि! मैंने चारों आश्रमों से चार पुण्यात्मा तपस्वी ब्राह्मणों को, जो मेरे भक्त और निर्मलचित्त थे, लाकर उनके समक्ष महान पाशुपत योग की व्याख्या की थी। मेरे दक्षिणवर्ती मुख से वह सब उपदेश सुनकर उन्होंने ग्रहण किया और पुनः उसकी तीनों लोकों में स्थापना की। इस समय तुम्हारे पूछने पर मैं उसी पाशुपत योग का वर्णन करता हूँ, एकचित्त होकर सुनो।

मेरा ही नाम पशुपति है। अपने रोम-रोम में भस्म रमाये रहने वाले जो मेरे भक्त मनुष्य हैं, उन्हें पाशुपत जानना चाहिये। भामिनि! पूर्वकाल में मैंने रक्षा के लिये, मंगल के लिये, पवित्रता के लिये और पहचान के लिये भी अपने भक्तों को भस्म प्रदान किया था। उस भस्म से सम्पूर्ण अंगों को लिप्त करके ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले जटाधारी, मुण्डित अथवा नाना प्रकार की शिखा धारण करने वाले, विकृत वेश, पिंगल वर्ण, नग्न देह और नाना वेश धारण किये मेरे निःस्पृह और परिग्रहशून्य भक्त मुझमें ही मन-बुद्धि लगाये, मिट्टी का पात्र हाथ में लिये सब ओर भिक्षा के लिये विचरते रहते हैं। समस्त लोक में विचरते हुए वे भक्तजन मेरे हर्ष की वृद्धि करते हैं। सभी लोकों में मेरे परम उत्तम सूक्ष्म एवं दिव्य पाशुपत योगशास्त्र का विचार करते हुए वे विचरण करते हैं। इस तरह नित्य मेरे ही चिन्तन में संलग्न रहने वाले अपने तपस्वी भक्तों के लिये मैं ऐसा उपाय सोचता रहता हूँ, जिससे वे शीघ्र मुझे प्राप्त हो जाते हैं।

तीनों लोकों में मैंने अपने स्वरूपभूत शिवलिंगों की स्थापना की है, जिनको नमस्कार मात्र करके मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं। होम, दान, अध्ययन और बहुत-सी दक्षिणा वाले यज्ञ भी शिवलिंग को प्रणाम करने से मिले हुए पुण्य की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते। प्रिये! शिवलिंग की पूजा से मैं बहुत संतुष्ट होता हूँ। तुम शिवलिंग-पूजन का विधान मुझसे सुनो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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