पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-66 का हिन्दी अनुवाद
नाभि के नीचे पक्वाशय और ऊपर आमाशय है। शरीर के ठीक मध्यभाग में नाभि है और समस्त प्राण उसी का आश्रय लेकर स्थित हैं। समस्त प्राण आदि ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल में विचरने वाले हैं। दस प्राणों से तथा अग्नि से प्रेरित हो नाड़ियाँ अन्नरस का वहन करती हैं। यह योगियों का मार्ग है, जो पाँचों प्राणों में स्थित है। साधक को चाहिये कि श्रम को जीतकर आसन पर आसीन हो आत्मा को ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित करे। मूर्धा में आत्मा को स्थापित करके दोनों भौंहों के बीच में मन का अवरोध करे। तत्पश्चात प्राण को भलीभाँति रोककर परमात्मा का चिन्तन करे। प्राण में अपान का और अपान कर्म में प्राणों का योग करे। फिर प्राण और अपान की गति को अवरुद्ध करके प्राणायाम में तत्पर हो जाये। इस प्रकार एकान्त प्रदेश में बैठकर मिताहारी मुनि अपने अन्तःकरण में पाँचों प्राणों का परस्पर योग करे और चुपचाप उच्छ्वासरहित हो बिना किसी थकावट के ध्यानमग्न रहे। योगी पुरुष बारंबार उठकर भी चलते, सोते या ठहरते हुए भी आलस्य छोड़कर योगाभ्यास में ही लगा रहे। इस प्रकार जिसका चित्त ध्यान में लगा हुआ है, ऐसे योगाभ्यास परायण योगी का मन शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और मन के प्रसन्न होने पर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। उस समय अविनाशी पुरुष परमात्मा धूमरहित प्रकाशित अग्नि, अंशुमाली सूर्य और आकाश में चमकने वाली बिजली के समान दिखायी देता है। उस अवस्था में मन के द्वारा ज्योतिर्मय परमेश्वर का दर्शन करके योगी अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यों से युक्त हो देवताओं के लिये भी स्पृहणीय परमपद को प्राप्त कर लेता है। वरारोहे! विद्वानों ने दोषों से योगियों के मार्ग में विघ्न की प्राप्ति बतायी है। वे योग के निम्नांकित दस ही दोष बताते हैं। काम, क्रोध, भय, स्वप्न, स्नेह, अधिक भोजन, वैचित्य (मानिसक विकलता), व्याधि, आलस्य और लोभ- ये ही उन दोषों के नाम हैं। इनमें लोभ दसवाँ दोष है। देवताओं द्वारा पैदा किये गये इन दस दोषों से योगियों को विघ्न होता है, अतः पहले इन दस दोषों को हटाकर मन को परमात्मा में लगावे। योग के निम्नांकित आठ गुण बताये जाते हैं, जिनसे युक्त दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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