पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-61 का हिन्दी अनुवाद
युवावस्था से ही मनुष्य धर्मशील हो; क्योंकि जीवन का कोई सुदृढ़ निमित्त नहीं है। इसे पके हुए फलों की भाँति सदा ही पतन का भय बना रहता है। मनुष्य को उन स्त्रियों, पुत्रों और प्रिय भोगों से भी क्या प्रयोजन है, जबकि वह एक ही दिन में सबको छोड़कर मृत्यु की ओर चला जाता है। संसार में जन्म लेने और मरने वालों को देखकर भी यदि मनुष्य को वैराग्य नहीं होता तो वह चेतन नहीं, काठ और मिट्टी के ढेले के समान जड़ है। जो विनाशशील है, जिसका जीवन निश्चित नहीं है, ऐसे पुरुष को बन्धुओं और मित्रों के संग्रह से क्या प्रयोजन है? क्योंकि वह सबको क्षणभर में छोड़कर चल देता है और जाकर फिर कभी लौटता नहीं है। इस प्रकार सदा सभी पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन करते हुए पुरुष को शीघ्र ही एक-दूसरे से वैराग्य होता है, जो मोक्ष का कारण है। उस उद्वेग से उसके मन में पुनः विमर्श पैदा होता है। समस्त द्रव्यों की ओर से जो वैराग्य पैदा होता है, उसी का नाम विमर्श है। शुभे! वैराग्य से मनुष्यों को बड़ी शान्ति मिलती है। वैराग्य मोक्ष का निकटतम एवं दिव्य साधन है, यह निश्चित रूप से कहा गया है। देवि! यह तुमसे वैराग्य उत्पन्न करने वाला वचन कहा गया है। मुमुक्षु पुरुष इस प्रकार बारंबार विचार करने से मुक्त हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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