पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-51 का हिन्दी अनुवाद
जब ब्राह्मण लोग भोजन करके तृप्त हो जायें, तब उन्हें उठाकर शेष अन्न दूसरों को निवेदन करे। तत्पश्चात् बहुत-से लोगों के साथ मनुष्य भृत्य वर्ग सहित शेष अन्न का स्वयं भोजन करे। यह सनातन पितृयज्ञ का संक्षेप से वर्णन किया गया। इससे पितर संतुष्ट होते हैं और श्राद्धकर्ता को उत्तम फल की प्राप्ति होती है। मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिदिन, प्रतिमास, साल में दो बार अथवा चार बार भी श्राद्ध करे। श्राद्ध करने से मनुष्य दीर्घायु एवं स्वस्थ होता है। वह बहुत-से पुत्र, सेवक तथा धन-धान्य से सम्पन्न होता है। श्राद्ध का दान करने वाला पुरुष विविध आकृतियों वाले, निर्मल, रजोगुणरहित और अप्सराओं से सेवित स्वर्गलोक में निरन्तर निवास पाता है। जो पुष्टि की इच्छा रखने वाले पण्डित श्राद्ध करते हैं, उन्हें पितर सदा पुष्टि एवं संतान प्रदान करते हैं। मनीषी पुरुष श्राद्ध को धन, यश, आयु तथा स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला, शत्रुनाशक एवं कुलधारक बताते हैं। देवि! भामिनि! दान के फल का जो प्रमाण माना गया है, उसे सुनो। जगत में मनुष्य के पास जो सार वस्तु है, उसका दान उसके लिये उत्तम माना गया है। शोभने! इस पृथ्वी पर उसी को सम्पूर्ण दान की विधि कही गयी है। दरिद्र का सार है सेरभर अन्न और जो करोड़पति है उसका सार है करोड़। जिसका सेरभर अनाज ही सार है, वह उसी का दान करके महान फल प्राप्त कर लेता है और जिसका सार एक करोड़ मुद्रा है, वह उसी का दान कर दे तो महान फल का भागी होता है। ये दोनों ही महत्त्वपूर्ण दान हैं ओर दोनों का फल महान माना गया है। धर्म, अर्थ और काम-भोग में शक्ति का अभाव हो जाये और उस अवस्था में कुछ दान किया जाये तो वह दान मध्यम कोटि का है और अपने धन एवं शक्ति से अत्यन्त हीन कोटि का दान अधम माना गया है। देवि! दान के फल की पाँच प्रकार से कल्पना की गयी है, उसको सुनो। अनन्त, महान, सम, हीन और पाप- ये पाँच तरह के फल होते हैं। देवि! इन पाँचों की जो विशेषता है, उसे बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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