महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-47

पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्यारय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-47 का हिन्दी अनुवाद


महादेवि! दूसरों की और अपनी भी कन्या का दान करना चाहिये। जो शुद्ध व्रत एवं आचार वाली, कुलीन एवं सुन्दर रूप वाली कन्या का किसी सुपात्र पुरुष को दान करना चाहता है, उसे इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिये कि वह सुपात्र व्यक्ति उस कन्या को बहुत चाहता है या नहीं (वह पुरुष उसे चाहता हो तभी उसके साथ उस कन्या का विवाह करना चाहिये)। पहले बन्धुओं के साथ सलाह करके कन्या के विवाह का निश्चय करे, तत्पश्चात उसे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करे। फिर उसके लिये मण्डप बनाकर दास-दासी, अन्यान्य सामग्री, घर के आवश्यक उपकरण, पशु और धान्य से सम्पन्न एवं वस्त्राभूषणों से विभूषित हुई उस कन्या का उसे चाहने वाले योग्य वर को अग्निदेव की साक्षिता में यथोचित रीति से विवाहपूर्वक दान करे।

भविष्य में जीवन-निर्वाह के लिये पूर्ण व्यवस्था करके उन दोनों दम्पत्ति को उत्तम गृह में ठहरावे। इस प्रकार वधू-वेष में कन्या का दान करके उस दान की महिमा से दाता मृत्यु के पश्चात् स्वर्गलोक में सुख और सम्मान के साथ रहता है। फिर जन्म लेने पर उसे सौभाग्य प्राप्त होता है तथा वह अपने कुल को बढ़ाता है। देवि! सुपात्र शिष्य को विद्यादान देने वाला मनुष्य मृत्यु के पश्चात् वृद्धि, बुद्धि, धृति और स्मृति प्राप्त करता है। जो सुयोग्य शिष्य को विद्या दान करता है, उसे शास्त्रोक्त दान का अक्षय फल प्राप्त होता है। सुभानने! निर्धन छात्रों को धन की सहायता देकर विद्या प्राप्त कराना भी स्वयं किये हुए विद्यादान के समान है, ऐसा समझो। मानिनि! देवि! इस प्रकार मैंने तुम्हारी प्रसन्नता के लिये ये बडे़-बड़े दान बताये हैं। अब और क्या सुनना चाहती हो?

उमा ने पूछा- भगवन! देवदेवेश्वर! तिल का दान कैसे करना चाहिये? और करने का फल क्या होता है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- तुम एकाग्रचित्त होकर मुझसे तिलकल्प की विधि सुनो। मनुष्य धनी हों या निर्धन, उन्हें विशेष रूप से तिलों का दान करना चाहिये, क्योंकि तिल पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय माने गये हैं। अपनी शक्ति के अनुसार न्यायपूर्वक शुद्ध तिलों का संग्रह करके उनकी पर्वताकार राशि बनावे। वह राशि छोटी हो या बड़ी उसे नाना प्रकार के द्रव्यों तथा रत्नों से युक्त करे। फिर यथाशक्ति सोना, चाँदी, मणि, मोती और मूँगों से अलंकृत करके पताका, वेदी, भूषण, वस्त्र, शय्या और आसन से सुशोभित करे। प्रायः आश्विन मास में विशेषतः पूर्णिमा तिथि को बहुत-से सुयोग्य ब्राह्मणों को विधिवत भोजन कराकर स्वयं उपवास करके शौचाचार-सम्पन्न हो उन ब्राह्मणों की परिक्रमा करके दक्षिणा सहित उस तिल राशि का दान करे।

कल्याणकामी पुरुष को चाहिये कि वह एक ही पुरुष को या अनेक व्यक्तियों को दान दे। देवि! उनके दान का फल अग्निष्टोम यज्ञ के समान होता है। अथवा पृथ्वी पर केवल तिलों से ही गौ की आकृति बनाकर गोदान के फल की इच्छा रखने वाला पुरुष रत्न और वस्त्र सहित उस तिल-धेनु का सुयोग्य ब्राह्मण को दान करे। इससे दाता को गोदान करने का फल मिलता है। जो राजा सुवर्ण और चम्पा से युक्त तथा तिल से भरे हुए शरावों (पुरवों) का ब्राह्मण को दान करता है, वह पुण्य-फल का भागी होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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