पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-39 का हिन्दी अनुवाद
संसार में प्राणों के समान प्रियतम दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः समस्त प्राणियों पर दया करनी चाहिये। जैसे अपने ऊपर दया अभीष्ट होती है, वैसे ही दूसरों पर भी होनी चाहिये। इस प्रकार मुनियों ने मांस न खाने में गुण बताये हैं। उमा ने पूछा- देव! धर्मचारी मनुष्य गुरुजनों की पूजा कैसे करते हैं? श्रीमहेश्वर ने कहा- शोभने! अब मैं तुम्हें यथावत रूप से गुरुजनों की पूजा की विधि बता रहा हूँ। वेद की यह आज्ञा है कि कृतज्ञ पुरुषों के लिये गुरुजनों की पूजा परम धर्म है। अतः सबको अपने-अपने गुरुजनों का पूजन करना चाहिये, क्योंकि वे गुरुजन संतान और शिष्य पर पहले उपकार करने वाले हैं। गुरुजनों में उपाध्याय (अध्यापक) पिता और माता- ये तीन अधिक गौरवशाली हैं। इनकी तीनों लोकों में पूजा होती है, अतः इन सब का विशेष रूप से आदर-सत्कार करना चाहिये। जो पिता के बड़े तथा छोटे भाई हों, वे तथा पिता के भी पिता- ये सब-के-सब पिता के ही तुल्य पूजनीय हैं। माता की जो जेठी बहन तथा छोटी बहन हैं, वे और नानी एवं धाय- इन सबको माता के ही तुल्य माना गया है। उपाध्याय का जो पुत्र है, वह गुरु है, उसका जो गुरु है, वह भी अपना गुरु है, ऋत्विक गुरु है और पिता भी गुरु है- ये सब-के-सब गुरु कहे गये हैं। बड़ा भाई, राजा, मामा, श्वशुर, भय से रक्षा करने वाला तथा भर्ता (स्वामी), ये सब गुरु कहे गये हैं। पतिव्रते! यह गुरु-कोटि में जिनकी गणना है, उन सब का संग्रह करके यहाँ बताया गया है। अब उनकी अनुवृत्ति और पूजा की भी बात सुनो। अपना हित चाहने वाले पुरुष को माता, पिता और उपाध्याय- इन तीनों की आराधना करनी चाहिये। किसी तरह भी इनका अपमान नहीं करना चाहिये। इससे पितर प्रसन्न होते हैं। प्रजापति को प्रसन्नता होती है। जिस आराधना के द्वारा वह माता को प्रसन्न करता है, उससे देवमाताएँ प्रसन्न होती हैं। जिससे वह उपाध्याय को संतुष्ट करता है, उससे ब्रह्मा जी पूजित होते हैं। यदि मनुष्य आराधना द्वारा इन सबको संतुष्ट न करे तो वह नरक में जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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