पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-38 का हिन्दी अनुवाद
इसी प्रकार जल की शुद्धि का भी ध्यान रखना आवश्यक है। जो शुद्ध जल हो उसी का स्पर्श करे- उसी से हाथ-मुँह धोकर कुल्ला करे और नहाये। गोबर से लीपने पर भूमि की शुद्धि होती है, राख से मलने पर धातु के पात्रों की शुद्धि होती है। लकड़ी के बने हुए पात्रों की शुद्धि छीलने, काटने और रगड़ने से होती है। मिट्टी के पात्रों की शुद्धि आग में जलाने से होती है, मनुष्यों की शुद्धि कृच्छ्र सांतपन आदि व्रत धारण करने से होती है। देवि! शेष सब वस्तुओं की शुद्धि सदा धूप में तपाने, जल के द्वारा धोने और ब्राह्मणों के वचन से होती है। जिसका दोष देखा न गया हो, ऐसी वस्तु को जल से धो दिया जाये तो वह शुद्ध हो जाता है। जिसकी वाणी द्वारा प्रशंसा की जाती है, वह भी शुद्ध ही समझना चाहिये। इसी प्रकार आपत्ति काल में शुद्धि की व्यवस्था है और इसी तरह शौच का विधान है। उमा ने पूछा- देवदेव! महेश्वर! आहार की शुद्धि कैसे होती है? श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जिसमें मांस और मद्य न हो, जो सड़ा हुआ या पसीजा न हो, बासी न हो, अधिक कड़वा, अधिक खट्टा और अधिक नमकीन न हो, जिससे उत्तम गन्ध आती हो, जिसमें कीड़े या केश न पड़े हों, जो निर्मल हो, ढका हुआ हो और देखने में भी शुद्ध हो, जिसका देवताओं और ब्राह्मणों द्वारा सत्कार किया गया हो, ऐसे अन्न को सदा भोजन करना चाहिये। उसे श्रेष्ठ ही जानना चाहिये। इसके विपरीत जो अन्न है, उसे अशुभ माना गया है। ग्राम्य अन्न की अपेक्षा वन में उत्पन्न होने वाले पदार्थों से बना हुआ अन्न श्रेष्ठ होता है। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। अधिक से अधिक ग्रहण किये हुए अन्न की अपेक्षा थोड़ा-सा दिया हुआ अन्न पवित्र होता है। यज्ञशेष (देवताओं को अर्पण करने से बचा हुआ), हविःशेष (अग्नि में आहुति देने से बचा हुआ) तथा पितृशेष (श्राद्ध से अवशिष्ट) अन्न निर्मल माना गया है। देवि! यह विषय तुम्हें बताया गया, अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- प्रभो! कुछ लोग तो मांस खाते हैं और दूसरे लोग उसका त्याग कर देते हैं। महादेव! ऐसी दशा में मुझे भक्ष्य-अभक्ष्य का निर्णय करके बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! मांस खाने में जो दोष है और उसे न खाने में जो गुण है, उसका मैं यथार्थ रूप से वर्णन करता हूँ, उसे सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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