महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-36

पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-36 का हिन्दी अनुवाद


(अब मदिरा पीने के दोष बताता हूँ) मदिरा पीने वाले उसे पीकर नशे में अट्टहास करते हैं, अंट-संट बातें बकते हैं, कितने ही प्रसन्न होकर नाचते हैं और भले-बुरे गीत गाते हैं। वे आपस में इच्छानुसार कलह करते और एक-दूसरे को मारते-पीटते हैं। कभी सहसा दौड़ पड़ते हैं, कभी लड़खड़ाते और गिरते हैं।

शोभने! वे जहाँ कहीं भी अनुचित बातें बकने लगते हैं और कभी नंग-धड़ंग हो हाथ-पैर पटकते हुए अचेत-से हो जाते हैं। इस प्रकार भ्रान्तचित्त होकर वे नाना प्रकार के भाव प्रकट करते हैं। जो महामोह में डालने वाली मदिरा पीते हैं, वे मनुष्य पापी होते हैं। पी हुई मदिरा मनुष्य के धैर्य, लज्जा और बुद्धि को नष्ट कर देती है। इससे मनुष्य निर्लज्ज और बेहया हो जाते हैं। शराब पीने वाला मनुष्य उसे पीकर बुद्धि का नाश हो जाने से कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान न रह जाने से, इच्छानुसार कार्य करने से तथा विद्वानों की आज्ञा के अधीन न रहने से पाप को ही प्राप्त होता है।

मदिरा पीने वाला पुरुष जगत में अपमानित होता है। मित्रों में फूट डालता है, सब कुछ खाता और हर समय अशुद्ध रहता है। वह स्वयं हर प्रकार से नष्ट होकर विद्वान विवेकी पुरुषों से झगड़ा किया करता है। सर्वथा रूखा, कड़वा और भयंकर वचन बोलता रहता है। वह मतवाला होकर गुरुजनों से बहकी-बहकी बातें करता है, परायी स्त्रियों से बलात्कार करता है, धूर्तों और जुआरियों के साथ बैठकर सलाह करता है और कभी किसी की कही हुई हितकर बात भी नहीं सुनता है। शोभने! इस प्रकार मदिरा पीने वाले में बहुत-से दोष हैं। वे केवल नरक में जाते हैं, इस विषय में कोई विचार करने की बात नहीं है। इसलिये अपना हित चाहने वाले सत्पुरुषों ने मदिरा पान का सर्वथा त्याग किया है। यदि सदाचार की रक्षा के लिये सत्पुरुष मदिरा पीना न छोड़े तो यह सारा जगत मर्यादारहित और अकर्मण्य हो जाये (यह शरीर सम्बन्धी महापाप है)। अतः श्रेष्ठ पुरुषों ने बुद्धि की रक्षा के लिये मद्यपान को त्याग दिया है।

शुचिस्मिते! अब पुण्य का भी विधान सुनो। देवि! थोड़े में तीन प्रकार का पुण्य भी बताया गया है। मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों दोषों की निवृत्ति हो जाने पर जो दोष की उपेक्षा करके सम्पूर्ण दुष्कर्मों का त्याग कर देता है, वही समस्त शुभ कर्मों का फल पाता है। पहले सब दोषों को एक साथ या बारी-बारी से त्याग देना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य को धर्माचरण का फल प्राप्त होता है, क्योंकि दोषों का परित्याग करना बहुत ही कठिन है। समस्त दोषों का त्याग कर देने से मनुष्य मुनि हो जाता है। देखो, धर्म करने में कितनी सुविधा या सुगमता है कि कोई कार्य किये बिना ही अपने को प्राप्त हुए दोषों का त्याग कर देने मात्र से मनुष्य परम पुण्य प्राप्त कर लेते हैं।

अहो! अल्पबुद्धि मानव कैसे क्रूर हैं कि पाप कर्म करके अपने-आपको नरक की आग में पकाते हैं। वे संतोषपूर्वक यह नहीं समझ पाते कि वैसा पुण्यकर्म सर्वथा अपने अधीन है। दुष्कर्मों का त्याग करने मात्र से ऊर्ध्वपद (स्वर्गलोक) की प्राप्ति होती है। देवि! पाप से डरने, दोषों को त्यागने और निष्कपट धर्म की अपेक्षा रखने से मनुष्य उत्तम परिणाम का भागी होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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