पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-22 का हिन्दी अनुवाद
उमा ने पूछा- भगवन! यदि ऐसी बात है तो भूमण्डल के मनुष्य पाप-कर्म करके उसके निवारण के लिये प्रायश्चित्त क्यों करते हैं? कहते हैं कि अश्वमेध यज्ञ सम्पूर्ण पापों को हर लेने वाला है। लोग दूसरे-दूसरे प्रायश्चित्त भी पापों का नाश करने के लिये ही करते हैं (इधर आप कहते हैं कि तीनों लोकों में कोई कर्मफल का नाश करने वाला है ही नहीं) अतः इस विषय में मुझे संदेह हो गया है। आप मेरे इस संदेह का निवारण करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुमने ठीक संशय उपस्थित किया है। अब एकाग्रचित्त होकर इसका वास्तविक उत्तर सुनो। पहले के महर्षियों के मन में भी यह महान संदेह बना रहा है। सज्जन हों या असज्जन, सभी के द्वारा दो प्रकार का पाप बनता है, एक तो वह पाप है, जिसे सदा किसी उद्देश्य को मन में लेकर जान-बूझकर किया जाता है और दूसरा वह है, जो अकस्मात दैवेच्छा से बिना जाने ही बन जाता है। जो उद्देश्य-सिद्धि की कामना रखकर क्रोधपूर्वक कोई असत कर्म करता है, उसके उस कर्म का किसी तरह नाश नहीं होता है। फलाभिसन्धिपूर्वक किये गये कर्मों का नाश सहस्रों अश्वमेध यज्ञों और सैकड़ों प्रायश्चित्तों से भी नहीं होता। इसके सिवा और प्रकार से- असावधानी या दैवेच्छा से जो पाप बन जाता है, वह प्रायश्चित्त और अश्वमेध यज्ञ से तथा दूसरे किसी श्रेष्ठ कर्म से नष्ट हो जाता है। प्रिये! इस प्रकार पाप कर्म के विषय में तुम्हारा यह संदेह अब दूर हो जाना चाहिये। देवि! यह विषय मैंने तुम्हें बताया। अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- भगवन! देवदेवेश्वर! जगत के मनुष्य तथा दूसरे प्राणी, जो किसी कारण से या अकारण भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, इसमें कौन-सा कर्मविपाक कारण है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो निर्दयी मनुष्य पहले किसी कारण से या अकारण भी दूसरे प्राणियों के प्राण लेते हैं, वे उसी प्रकार अपनी करनी का फल पाते हैं। विष देने वाले विष से ही मरते हैं और शस्त्र द्वारा दूसरों की हत्या करने वाले लोग स्वयं भी जन्मान्तर में शस्त्रों के आघात से ही मारे जाते हैं। तुम इसी को सत्य समझो। कर्म करने वाला मनुष्य उन कर्मों का फल न भोगे, ऐसा कोई पुरुष न इस पृथ्वी पर है, न स्वर्ग में। देवता, असुर और मनुष्य कोई भी अपने कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह सकता। आदिकाल से ही यह संसार कर्म से गुँथा हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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