पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-16 का हिन्दी अनुवाद
उमा ने पूछा- प्रभो! मनुष्यों में ही कुछ लोग दुर्गतियुक्त अधिक क्लेश से पीड़ित, दान और भोग से वंचित, तीन प्रकार के भयों से युक्त, रोग और भोग के भय से पीड़ित, दुष्ट पत्नी से तिरस्कृत तथा सदा सभी कार्यों में विघ्न का ही दर्शन करने वाले होते हैं। किस कर्म विपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले आसुरभाव के आश्रित, क्रोध और लोभ से युक्त, भोजन सामग्री से वंचित, अकर्मण्य, नास्तिक, धूर्त, मूर्ख, अपना ही पेट पालने वाले, दूसरों को सताने वाले तथा प्रायः सभी प्राणियों के प्रति निर्दय होते हैं। शोभने! ऐसे आचार-व्यवहार से युक्त मनुष्य पुनर्जन्म के समय किसी प्रकार मनुष्ययोनि को पाकर जहाँ-कहीं भी उत्पन्न होते हैं, सर्वत्र अपने ही प्रमाद के कारण दुःख से पीड़ित होते हैं और जैसा तुमने बताया है, वैसे ही अवांछनीय दोष से युक्त होते हैं। देवि! मनुष्य का किया हुआ शुभ या अशुभ कर्म ही उसे सुख या दुःखरूप फल की प्राप्ति कराने वाला है। यह बात मैंने तुम्हें बता दी। अब और क्या सुनना चाहती हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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