महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-14

पंचचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-14 का हिन्दी अनुवाद


श्रीमहेश्वर ने कहा- कल्याणी! सुनो, मैं तुमसे इसका कारण बताता हूँ। पूर्वजन्म में सुन्दर रूप पाकर जो मनुष्य दर्प और अहंकार से युक्त हो स्तुति और निन्दा आदि के द्वारा कुरूप मनुष्यों की बहुत हँसी उड़ाया करते हैं, दूसरों को सताते, मांस खाते, पराया दोष देखते और सदा अशुद्ध रहते हैं, ऐसे अनाचारी मनुष्य यमलोक में भलीभाँति दण्ड पाकर जब फिर किसी प्रकार मनुष्य-योनि में जन्म लेते हैं, तब रूपहीन और कुरूप होते ही हैं। इसमें विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं।

उमा ने पूछा- भगवन! देवदेवेश्वर! कुछ मनुष्य सौभाग्यशाली होते हैं, जो रूप और भोग से हीन होने पर भी नारी को प्रिय लगते हैं। किस कर्म विपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले सौम्य-स्वभाव के तथा प्रिय वचन बोलने वाले होते हैं, अपनी ही पत्नी में संतुष्ट रहते हैं, यदि कई पत्नियाँ हों तो उन सब पर समान भाव रखते हैं, अपने स्वभाव के कारण अप्रिय लगने वाली स्त्रियों के प्रति भी उदारतापूर्ण बर्ताव करते हैं, स्त्रियों के दोषों की चर्चा नहीं करते, उनके गुणों का ही बखान करते हैं, समय पर अन्न और जल का दान करते हैं, अतिथियों को स्वादिष्ट अन्न भोजन कराते हैं, अपनी पत्नी के प्रति ही अनुरक्त रहने का नियम लेते हैं, धैर्यवान और दुःखरहित होते हैं, शोभने! ऐसे आचार वाले मनुष्य पुनर्जन्म लेने पर सदा सौभाग्यशाली होते ही हैं। देवि! वे धनहीन होने पर भी अपनी पत्नी के प्रीतिपात्र होते हैं।

उमा ने पूछा- भगवन! बहुत से श्रेष्ठ पुरुष भोगों से सम्पन्न होने पर भी दुर्भाग्य के मारे दिखायी देते हैं। किस कर्म विपाक से ऐसा सम्भव होता है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! इस बात को मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सारी बातें सुनो। जो मनुष्य पहले अपनी पत्नी की उपेक्षा करके स्वेच्छाचारी हो जाते हैं, लज्जा और भय को छोड़ देते हैं, मन, वाणी और शरीर तथा क्रिया द्वारा दूसरों की बुराई करते हैं और आश्रयहीन एवं निराहार रहकर पत्नी के हृदय में क्रोध उत्पन्न करते हैं, ऐसे दूषित आचार वाले मनुष्य पुनर्जन्म लेने पर दुर्भाग्ययुक्त और नारी जाति के लिये अप्रिय ही होते हैं। ऐसे भाग्यहीनों को अपनी पत्नी से भी अनुरागजनित सुख नहीं सुलभ होता।

उमा ने पूछा- भगवन! देवदेवेश्वर! मनुष्यों में से कुछ लोग ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, बुद्धिमान और विद्वान होने पर भी दुर्गति में पड़े दिखायी देते हैं। वे विधिपूर्वक यत्न करके भी उस दुर्गति से नहीं छूट पाते। किस कर्म विपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- कल्याणि! सुनो, मैं इसका कारण तुम्हे बताता हूँ। देवि! जो मनुष्य पहले केवल विद्वान होने पर भी आश्रयहीन और भोजन-सामग्री से वंचित होकर केवल अपने ही उदर-पोषण के प्रयत्न में लगे रहते हैं, शुभे! वे पुनर्जन्म लेने पर ज्ञान और बुद्धि से युक्त होने पर भी अकिंचन ही रह जाते हैं, क्योंकि बिना बोया हुआ बीज नहीं जमता है।

उमा ने पूछा- भगवन! इस जगत में मूर्ख, अचेत तथा ज्ञान-विज्ञान से रहित मनुष्य भी सब ओर से समृद्धिशाली और दृढ़मूल दिखायी देते हैं। किस कर्म विपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले मूर्ख होने पर भी सब ओर दीन-दुःखियों पर अनुग्रह करके उन्हें दान देते रहे हैं, जो पहले से दान के महत्त्व को न समझकर भी जहाँ-तहाँ दान देते ही रहे हैं, शुभे! वे मनुष्य पुनर्जन्म प्राप्त होने पर वैसी अवस्था को प्राप्त होते ही हैं। कोई मूर्ख हो या पण्डित, प्रत्येक मनुष्य दान का फल भोगता है। बुद्धि से अनपेक्षित दान भी सर्वथा फल देता ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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