महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 144 श्लोक 37-55

चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम (144) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व : चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 37-55 का हिन्दी अनुवाद


जो श्रद्धालु, दयालु, शुद्ध, शुद्धजनों के प्रेमी तथा धर्म और अधर्म के ज्ञाता हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। देवि! जो शुभ और अशुभ कर्मों के फल-संचय के विषय में परिणाम के ज्ञाता हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। जो न्यायशील, गुणवान देवताओं और द्विजों के भक्त तथा उत्थान को प्राप्त हैं, वे मानव स्वर्गगामी होते हैं।

देवि! जो शुभ कर्मों के फलों से स्वर्गलोक के मार्ग में स्थित हैं, उनका वर्णन मैंने यहाँ किया है। अब तुम और क्या सुनना चाहती हो?

उमा ने पूछा- महेश्वर! मुझे मनुष्यों के विषय में एक महान संशय है। आप अच्छी तरह उस संशय का समाधान करें। प्रभो! मनुष्य किस कर्म से दीर्घायु प्राप्त करता है? तथा देवेश्वर! किस तपस्या से मनुष्य को बड़ी आयु प्राप्त होती है? अनिन्द्य महादेव! इस भूतल पर कौन-सा कर्म करने से मनुष्य की आयु क्षीण हो जाती है? आप मुझसे कर्म-विपाक का वर्णन करें। इस जगत में कुछ लोग महान भाग्यशाली हैं तो कुछ लोग मन्दभाग्य हैं, कुछ लोग निन्दित कुल में उत्पन्न हैं तो दूसरे लोग उच्च कुल में। कुछ मनुष्य दुर्दशा के मारे काष्ठमय (जड़वत) प्रतीत हो रहे हैं, उनकी ओर देखना कठिन जान पड़ता है और दूसरे कितने ही मनुष्य दर्शन मात्र से मन प्रसन्न कर देते हैं, उनकी ओर देखना प्रिय लगता है। कुछ लोग दुर्बुद्धि जान पड़ते हैं और कुछ विद्वान तथा कितने ही ज्ञान-विज्ञानशाली महाप्राज्ञ प्रतीत होते हैं।

देव! कुछ लोग साधारण एवं स्वल्प बाधाओं से ग्रस्त होते हैं और कुछ लोगों को बड़ी-बड़ी बाधाएँ घेरे रहती हैं। इस तरह जो भिन्न-भिन्न प्रकार की विषम अवस्था में पड़े हुए पुरुष दिखायी देते हैं, उनकी इस विषमता का क्या कारण है? यह मुझे विस्तारपूर्वक बताइये।

श्री महेश्वर ने कहा- देवि! अब मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें बता रहा हूँ कि कर्म के फल का उदय किस प्रकार होता है और मर्त्यलोक के सभी मनुष्य किस प्रकार अपनी-अपनी करनी का फल भोगते हैं।

देवि! जो मनुष्य दूसरों का प्राण लेने के लिये हाथ में डंडा लेकर सदा भयंकर रूप धारण किये रहता है, जो प्रतिदिन हथियार उठाये जगत के प्राणियों की हत्या किया करता है, जिसके भीतर किसी के प्रति दया नहीं होती, जो समस्त प्राणियों को सदा उद्वेग में डाले रहता है और जो अत्यन्त क्रूर होने के कारण चींटी और कीड़ों को भी शरण नहीं देता, ऐसा मानव घोर नरक में पड़ता है।

जिसका स्वभाव इसके विपरीत है, वह धर्मात्मा और रूपवान होता है। देवि! हिंसाप्रेमी मनुष्य अपने पापकर्म के कारण दूसरों का वध्य, सब प्राणियों का अप्रिय तथा अल्पायु होता है। जिसका चित्त हिंसा में लगा होता है, वह नरक में गिरता है और जो किसी की हिंसा नहीं करता, वह स्वर्ग में जाता है। नरक में पड़े हुए जीव को बड़ी कष्टदायक और भयंकर यातना भोगनी पड़ती है। यदि कभी कोई उस नरक से छुटकारा पाता है तो मनुष्य योनि में जन्म लेता है, किंतु वहाँ उसकी आयु बहुत थोड़ी होती है। देवि! पापकर्म से बँधा हुआ हिंसापरायण मनुष्य समस्त प्राणियों का अप्रिय होने के कारण अल्पायु हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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