महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-3

एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-3 का हिन्दी अनुवाद


पवित्र मुसकान वाली देवि! ये मेरे भूतगण श्मशान में ही रमते हैं। इन भूतगणों के बिना मैं कहीं भी रह नहीं सकता। शुभे! यह श्मशान का निवास ही मैंने अपने लिये पवित्र और स्वर्गीय माना है। यही परम पुण्यस्थली है। पवित्र वस्तु की कामना रखने वाले उपासक इसी की उपासना करते हैं।

अनिन्दिते! इस श्मशान भूमि से अधिक पवित्र दूसरा कोई स्थान नहीं है, क्योंकि वहाँ मनुष्यों का अधिक आना-जाना नहीं होता। इसीलिये वह स्थान पवित्रतम माना गया है। प्रिये! वह वीरों का स्थान है, इसलिये मैंने वहाँ अपना निवास बनाया है। वह मृतकों की सैकड़ों खोपड़ियों से भरा हुआ भयानक स्थान भी मुझे सुन्दर लगता है। दोपहर के समय, दोनों संध्याओं के समय तथा आर्द्रा नक्षत्र में दीर्घायु की कामना रखने वाले अथवा अशुद्ध पुरुषों को वहाँ नहीं जाना चाहिये, ऐसी मर्यादा है। मेरे सिवा दूसरा कोई भूतजनित भय का नाश नहीं कर सकता। इसलिये मै। श्मशान में रहकर समस्त प्रजाओं का प्रतिदिन पालन करता हूँ। मेरी आज्ञा मानकर ही भूतों के समुदाय अब इस जगत में किसी की हत्या नहीं कर सकते हैं। सम्पूर्ण जगत के हित के लिये मैं उन भूतों को श्मशान भूमि में रमाये रखता हूँ। श्मशान भूमि में रहने का सारा रहस्य मैंने तुमको बता दिया। अब और क्या सुनना चाहती हो?

उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! त्रिनेत्र! वृषभध्वज! आपका रूप पिंगल, विकृत और भयानक प्रतीत होता है। आपके सारे शरीर में भभूति पुती हुई है, आपकी आँख विकराल दिखायी देती है, दाढ़ें तीखी हैं और सिर पर जटाओं का भार लदा हुआ है, आप बाघम्बर लपेटे हुए हैं और आपके मुख पर कपिल रंग की दाढ़ी-मूँछ फैली हुई है। आपका रूप ऐसा रौद्र, भयानक, घोर तथा शूल और पट्टिश आदि से युक्त किसलिये है? यह मुझे बताने की कृपा करें।

श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! मैं इसका भी यथार्थ कारण बताता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। जगत के सारे पदार्थ दो भागों में विभक्त हैं- शीत और उष्ण (अग्नि और सोम)। अग्नि-सोम-रूप यह सम्पूर्ण जगत उन शीत और उष्ण तत्त्वों में गुँथा हुआ है। सौम्य गुण की स्थिति सदा भगवान विष्णु में है और मुझमें आग्नेय (तैजस) गुण प्रतिष्ठित है। इस प्रकार इस विष्णु और शिवरूप शरीर से मैं सदा समस्त लोकों की रक्षा करता हूँ।

देवि! यह जो विकराल नेत्रों से युक्त और शूल-पट्टिश से सुशोभित भयानक आकृति वाला मेरा रूप है, यही आग्नेय है। यह सम्पूर्ण जगत के हित में तत्पर रहता है।

शुभानने! यदि मैं इस रूप को त्याग कर इसके विपरीत हो जाऊँ तो उसी समय सम्पूर्ण लोकों की दशा विपरीत हो जायेगी। देवि! इसलिये लोकहित की इच्छा से ही मैंने यह रूप धारण किया है। अपने रूप का यह सारा रहस्य बता दिया, अब और क्या सुनना चाहती हो?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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