महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-2

एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-2 का हिन्दी अनुवाद


प्रिये! उसके अनुसार घोर तपस्या करते हुए मुनि के मस्तक पर कालक्रम से बाँबी जम गयी। वह सब अपने मस्तक पर लिये-दिये वे पूर्ववत् तपश्चर्या में लगे रहे। मुनि की तपस्या से पूजित हुए ब्रह्मा जी उन्हें वर देने के लिये गये। वर देकर भगवान ब्रह्मा ने वहाँ एक बाँस देखा और उसके उपयोग के लिये कुछ विचार किया। भामिनि! उस बाँस के द्वारा जगत का उपकार करने के उद्देश्य से कुछ सोचकर ब्रह्मा जी ने उस वेणु को हाथ में ले लिया और उसे धनुष के उपयोग में लगाया। लोक पितामह ब्रह्मा ने भगवान विष्णु की और मेरी शक्ति जानकर उनके और मेरे लिये तत्काल दो धनुष बनाकर दिये। मेरे धनुष का नाम पिनाक हुआ और श्रीहरि के धनुष का नाम शारंग। उस वेणु के अवशेष भाग से एक तीसरा धनुष बनाया गया, जिसका नाम गाण्डीव हुआ। गाण्डीव धनुष सोम को देकर ब्रह्मा जी फिर अपने लोक को चले गये। अनिन्दिते! शस्त्रों की प्राप्ति का यह सारा वृत्तान्त मैंने तुम्हें कह सुनाया।

उमा ने पूछा- सत्पुरुषों में श्रेष्ठ महादेव! इस जगत में अन्य सब सुन्दर वाहनों के होते हुए क्यों वृषभ ही आपका वाहन बना है?

श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! ब्रह्माजी ने देवताओं के लिये दूध देने वाली सुरभि नामक गाय की सृष्टि की, जो मेघ के समान दूधरूपी जल की वर्षा करने वाली थी। उत्पन्न हुई सुरभि अमृतमय दूध बहाती हुई अनेक रूपों में प्रकट हो गयी। एक दिन उसके बछड़े के मुख से निकला हुआ फेन मेरे शरीर पर पड़ गया। इससे मैंने कुपित होकर गौओं को ताप देना आरम्भ किया। मेरे रोष में दग्ध हुई गौओं के रंग नाना प्रकार के हो गये। अब अर्थनीति के ज्ञाता लोकगुरु ब्रह्मा ने मुझे शान्त किया तथा ध्वज-चिह्न और वाहन के रूप में यह वृषभ मुझे प्रदान किया।

उमा ने पूछा- भगवन! स्वर्गलोक में अनेक प्रकार के सर्वगुणसम्पन्न निवास स्थान हैं, उन सबको छोड़कर आप श्मशान-भूमि में कैसे रमते हैं? श्मशानभूमि तो केशों और हड्डियों से भरी होती है। उस भयानक भूमि में मनुष्यों की खोपड़ियाँ और घड़े पड़े रहते हैं। गीधों और गीदड़ों की जमातें जुटी रहती हैं। वहाँ सब ओर चिताएँ जला करती हैं। मांस, वसा और रक्त की कीच-सी मची रहती है। बिखरी हुई आँतों वाली हड्डियों के ढेर पड़े रहते हैं और सियारिनों की हुआँ-हुआँ की ध्वनि वहाँ गूँजती रहती है, ऐसे अपवित्र स्थान में आप क्यों रहते हैं?

श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! मैं पवित्र स्थान ढूँढने के लिये सदा सारी पृथ्वी पर दिन-रात विचरता रहता हूँ, परंतु श्मशान से बढ़कर दूसरा कोई पवित्रतर स्थान यहाँ मुझे नहीं दिखायी दे रहा है। इसलिये सम्पूर्ण निवास स्थानों में से श्मशान में ही मेरा मन अधिक रमता है। वह श्मशानभूमि बरगद की डालियों से आच्छादित और मुर्दों के शरीर से टूटकर गिरी हुई पुष्पमालाओं के द्वारा विभूषित होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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