एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-13 का हिन्दी अनुवाद
विभो! देव! यह मैंने मुनिधर्म के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट की है। देवदेव! आप सम्पूर्ण धर्मों का तत्त्व जानने वाले हैं, अतः महादेव! मैंने जो कुछ पूछा है, उसका पूर्ण रूप से यथावत वर्णन कीजिये। श्रीभगवान शिव बोले- शुभे! तुम्हारे इस प्रश्न से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। अब मैं मुनियों के सर्वोत्तम धर्म का वर्णन करता हूँ, जिसका पालन करके वे अपनी तपस्या के द्वारा परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं। महाभागे! धर्मज्ञे! सबसे पहले धर्मवेत्ता साधु पुरुष फेनप ऋषियों का जो धर्म है, उसी का मुझसे वर्णन सुनो। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने यज्ञ करते समय जिसका पान किया था तथा जो स्वर्ग में फैला हुआ है, वह अमृत (ब्रह्मा जी के द्वारा पीया गया इसलिये) ब्रह्म कहलाता है। उसके फेन को जो थोड़ा-थोड़ा संग्रह करके सदा पान करते हैं (और उसी के आधार पर जीवन-निर्वाह करके तपस्या में लगे रहते हैं,) वे फेनप[1] कहलाते हैं। तपोधने! यह धर्माचरण का मार्ग उन विशुद्ध फेनप महात्माओं का ही मार्ग है। अब बालखिल्य नाम वाले ऋषिगणों द्वारा जो धर्म का मार्ग बताया गया है, उसको सुनो। बालखिल्यगण तपस्या से सिद्ध हुए मुनि हैं। वे सब धर्मों के ज्ञाता हैं और सूर्यमण्डल में निवास करते हैं। वहाँ वे उन्छवृत्ति का आश्रय ले पक्षियों की भाँति एक-एक दाना बीनकर उसी से जीवन-निर्वाह करते हैं। मृगछाला, चीर और वल्कल- ये ही उनके वस्त्र हैं। वे बालखिल्य शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों से रहित, सन्मार्ग पर चलने वाले और तपस्या के धनी हैं। उनमें से प्रत्येक का शरीर अंगूठे के सिरे के बराबर है। इतने लघुकाय होने पर भी वे अपने-अपने कर्तव्य में स्थित हो सदा तपस्या में संलग्न रहते हैं। उनके धर्म का फल महान है। वे देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये उनके समान रूप धारण करते हैं। वे तपस्या से सम्पूर्ण पापों को दग्ध करके अपने तेज से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। इनके अतिरिक्त दूसरे भी बहुत-से शुद्धचित्त, दयाधर्मपरायण एवं पुण्यात्मा संत हैं, जिनमें कुछ चक्रचर (चक्र के समान विचरने वाले), कुछ सोमलोक में रहने वाले तथा कुछ पितृलोक के निकट निवास करने वाले हैं। ये सब शास्त्रीय विधि के अनुसार उन्छवृत्ति से जीविका चलाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कुछ लोग दूध पीने के समय बछड़ों के मुँह में लगे हुए फेन को ही वह अमृत मानते हैं, उसी का पान करने वाले उनके मत में फेनप हैं। आचार्य नीलकण्ठ अन्न के आग्रभाग (रसोई से निकाले गये अग्राशन) को फेन और उसका उपयोग करने वाले को फेनप कहते हैं।
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