एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-12 का हिन्दी अनुवाद
अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को सदा अपनी शक्ति के अनुसार दान करना चाहिये। सदा यज्ञ करना चाहिये और सदा ही पुष्टिजनक कर्म करते रहना चाहिये। मनुष्य को धर्म के द्वारा धन का उपार्जन करना चाहिये। धर्म से उपार्जित हुए धन के तीन भाग करने चाहिये और प्रयत्नपूर्वक धर्मप्रधान कर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। अपनी उन्नति चाहने वाले पुरुष को धन के उपर्युक्त तीन भागों में से एक भाग के द्वारा धर्म और अर्थ की सिद्धि करनी चाहिये। दूसरे भाग को उपभोग में लगाना चाहिये और तीसरे अंश को बढ़ाना चाहिये (प्रवृत्तिधर्म का वर्णन किया गया है)। इससे भिन्न निवृत्तिरूप धर्म है। वह मोक्ष का साधन है। देवि! मैं यथार्थरूप से उसका स्वरूप बताता हूँ, उसे सुनो। मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करनी चाहिये। यही उनका धर्म है। उन्हें सदा एक ही गाँव में नहीं रहना चाहिये और अपने आशारूपी बन्धनों को तोड़ने का प्रयत्न करना चाहिये। यही मुमुक्षु के लिये प्रशंसा की बात है। मोक्षाभिलाषी पुरुष को न तो कुटी में आसक्ति रखनी चाहिये न जल में, न वस्त्र में, न आसन में, न त्रिदण्ड में, न शय्या में, न अग्नि में और न किसी निवास स्थान में ही आसक्त होना चाहिये। मुमुक्षु को अध्यात्मज्ञान का ही चिन्तन, मनन और निदिध्यासन करना चाहिये। उसे उसी में सदा स्थित रहना चाहिये। निरन्तर योगाभ्यास में प्रवृत्त होकर तत्त्व का विचार करते रहना चाहिये। संन्यासी द्विज को उचित है कि वह सब प्रकार की आसक्तियों और स्नेहबन्धनों से मुक्त होकर सर्वदा वृक्ष के नीचे, सूने घर में अथवा नदी के किनारे रहता हुआ अपने अन्तःकरण में ही परमात्मा का ध्यान करे। जो युक्तचित्त होकर संन्यासी होता है और मोक्षोपयोगी कर्म श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि के द्वारा समय व्यतीत करता हुआ निराहार (विषय सेवन से रहित) और ठूठे काठ की भाँति स्थिर रहता है, उसको सनातन धर्म का मोक्ष रूप धर्म प्राप्त होता है। संन्यासी किसी एक स्थान में आसक्ति न रखे, एक ही ग्राम में न रहे तथा किसी एक ही किनारे पर सर्वदा शयन न करे। उसे सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरना चाहिये। यह मोक्षधर्म के ज्ञाता सत्पुरुषों का वेदप्रतिपादित धर्म एवं सन्मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलता है, उसको ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है। संन्यासी चार प्रकार के होते हैं- 'कुटीचक', 'बहूदक', 'हंस' और 'परमहंस'। इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है। इस परमहंस धर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले आत्मज्ञान से बढ़कर दूसरा कुछ भी नहीं है। यह परमहंस ज्ञान किसी से निष्कृष्ट नहीं है। परमहंस ज्ञान के सम्मुख परमात्मा तिरोहित नहीं है। यह दुःख-सुख से रहित सौम्य अजर-अमर और अविनाशी पद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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