महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-11

एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-11 का हिन्दी अनुवाद


श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! गुणों की अभिलाषा रखने वाले जगतस्रष्टा ब्रह्मा जी ने समस्त लोकों का उद्धार करने के लिये जगत की सार वस्तु द्वारा मृत्युलोक में ब्राह्मणों की सृष्टि की है। ब्राह्मण इस भूमण्डल के देवता हैं, अतः पहले उनके ही धर्म-कर्म और उनके फलों का वर्णन करता हूँ, क्योंकि ब्राह्मणों में जो धर्म होता है, उसे ही परम धर्म माना जाता है।

ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण जगत् की रक्षा के लिये तीन प्रकार के धर्म का विधान किया है। पृथ्वी की सृष्टि के साथ ही इन तीनों धर्मों की सृष्टि हो गयी है, इनको भी तुम मुझसे सुनो। पहला है वेदोक्त धर्म, जो सबसे उत्कृष्ट धर्म है। दूसरा है वेदानुकूल स्मृति-शास्त्र में वर्णित- स्मार्तधर्म और तीसरा है शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरित धर्म (शिष्टाचार)। ये तीनों धर्म सनातन हैं। जो तीनों वेदों का ज्ञाता और विद्वान हो, पढ़ने-पढ़ाने का काम करके जीविका न चलाता हो, दान, धर्म और यज्ञ- इन तीन कर्मों का सदा अनुष्ठान करता हो, काम, क्रोध और लोभ- इन तीनों दोषों का त्याग कर चुका हो और सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखता हो- ऐसा पुरुष ही वास्तव में ब्राह्मण माना गया है।

सम्पूर्ण भुवनों के स्वामी ब्रह्मा जी ने ब्राह्मणों की जीविका के लिये ये छः कर्म बताये हैं, जो उनके लिये सनातन धर्म हैं। इनके नाम सुनो। यजन-याजन (यज्ञ करना-कराना), दान देना, दान लेना, वेद पढ़ना और वेद पढ़ाना। इन छः कर्मों का आश्रय लेने वाला ब्राह्मण धर्म का भागी होता है। इनमें भी सदा स्वाध्यायशील होना ब्राह्मण का मुख्य धर्म है, यज्ञ करना सनातन धर्म है और अपनी शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक दान देना उसके लिये प्रशस्त धर्म है। सब प्रकार के विषयों से उपरत होना शम कहलाता है। यह सत्पुरुषों में सदा दृष्टिगोचर होता है। इसका पालन करने से शुद्ध चित्त वाले गृहस्थों को महान् धर्म राशि की प्राप्ति होती है।

गृहस्थ पुरुष को पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान करके अपने मन को शुद्ध बनाना चाहिये। जो गृहस्थ सदा सत्य बोलता, किसी के दोष नहीं देखता, दान देता, ब्राह्मणों का सत्कार करता, अपने घर को झाड़-बुहारकर साफ रखता, अभिमान को त्याग देता, सदा सरल भाव से रहता, स्नेहयुक्त वचन बोलता, अतिथि और अभ्यागतों की सेवा में मन लगाता, यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन करता और अतिथि को शास्त्र की आज्ञा के अनुसार पाद्य, अर्ध्य, आसन, शय्या, दीपक तथा ठहरने के लिये गृह प्रदान करता है, उसे धार्मिक समझना चाहिये।

जो प्रातःकाल उठाकर आचमन करके ब्राह्मणों को भोजन के लिये निमन्त्रण देता और उसे ठीक समय पर सत्कारपूर्वक भोजन कराने के बाद कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे जाता है, उसके द्वारा सनातन धर्म का पालन होता है। शूद्र गृहस्थ को अपनी शक्ति के अनुसार तीनों वर्णों का निरन्तर सब प्रकार से आतिथ्य-सत्कार करना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीन वर्णों की परिचर्या में रहना उसके लिये प्रधान धर्म बतलाया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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