महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 140 श्लोक 37-51

चत्वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 37-51 का हिन्दी अनुवाद


उस समय उमा में नारी-स्वभाववश मृदुता (कातरता) आ गयी थी। वे पिता की दयनीय अवस्था नहीं देखना चाहती थीं। उनकी ऐसी दशा देख भगवान शंकर ने हिमवान पर्वत की ओर प्रसन्नतापूर्ण दृष्टि से देखा। उनकी दृष्टि पड़ने पर क्षणभर में सारा हिमालय पर्वत पहली स्थिति में आ गया। देखने में परम सुन्दर हो गया। वहाँ हर्ष में भरे हुए पक्षी कलरव करने लगे। उस वन के वृक्ष सुन्दर पुष्पों से सुशोभित हो गये। पर्वत को पूर्वावस्था में स्थित हुआ देख पतिव्रता पार्वती देवी बहुत प्रसन्न हुईं। फिर उन्होंने सम्पूर्ण लोकों के स्वामी कल्याणस्वरूप महेश्वर देव से पूछा।

उमा बोलीं- भगवन! सर्वभूतेश्वर! शूलपाणे! महान व्रतधारी महेश्वर! मेरे मन में एक महान संशय उत्पन्न हुआ है। आप मुझसे उसकी व्याख्या कीजिये। क्यों आपके ललाट में तीसरा नेत्र प्रकट हुआ? किसलिये आपने पक्षियों और वनों सहित पर्वत को दग्ध किया और देव! फिर किसलिये आपने उसे पूर्वावस्था में ला दिया। मेरे इन पिता को आपने जो पूर्ववत वृक्षों से आच्छादित कर दिया, इसका क्या कारण है?। देवदेव! मेरे हृदय में यह संदेह विद्यमान है। आप इसका समाधान करने की कृपा करें। आपको मेरा सादर नमस्कार है।

नारद जी कहते हैं- देवी पार्वती के ऐसा कहने पर भगवान शंकर प्रसन्न होकर बोले। श्रीमहेश्वर ने कहा- धर्म को जानने तथा प्रिय वचन बोलने वाली देवि! तुमने जो संशय उपस्थित किया है, वह उचित ही है। प्रिये! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मुझसे ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता। भामिनि! प्रकट या गुप्त जो भी बात होगी, तुम्हारा प्रिय करने के लिये मैं सब कुछ बताऊँगा। तुम इस सभा में मुझसे सारी बातें सुनो।

प्रिये! सभी लोकों में मुझे कूटस्थ समझो। तीनों लोक मेरे अधीन हैं। ये जैसे भगवान विष्णु के अधीन हैं, उसी प्रकार मेरे भी अधीन हैं। भामिनि! तुम यही जान लो कि भगवान विष्णु जगत के स्रष्टा हैं और मैं इसकी रक्षा करने वाला हूँ। शोभने! इसीलिये जब मुझसे शुभ या अशुभ का स्पर्श होता है, तब यह सारा जगत वैसा ही शुभ या अशुभ हो जाता है। देवि! अनिन्दिते! तुमने अपने भोलेपन के कारण मेरी दोनों आँखें बंद कर दीं। इससे क्षणभर में समस्त संसार का प्रकाश तत्काल नष्ट हो गया। गिरिराजकुमारी! संसार में जब सूर्य अदृश्य हो गये और सब ओर अन्धकार-ही-अन्धकार छा गया, तब मैंने प्रजा की रक्षा के लिये अपने तीसरे तेजस्वी नेत्र की सृष्टि की है। उसी तीसरे नेत्र का यह महान तेज था, जिसने इस पर्वत को मथ डाला। देवि! फिर तुम्हारा प्रिय करने के लिये मैंने इस गिरिराज हिमवान को पुनः प्रकृतिस्थ कर दिया है।

उमा ने कहा- भगवन! (आपके चार मुख क्यों हैं।) आपका पूर्व दिशा वाला मुख चन्द्रमा के समान कान्तिमान एवं देखने में अत्यन्त प्रिय है। उत्तर और पश्चिम दिशा के मुख भी पूर्व की ही भाँति कमनीय कान्ति से युक्त हैं। परंतु दक्षिण दिशा वाला मुख बड़ा भयंकर है। यह अन्तर क्यों? तथा आपके सिर पर कपिल वर्ण की जटाएँ कैसे हुईं? क्या कारण है कि आपका कण्ठ मोर की पाँख के समान नीला हो गया? देव! आपके हाथ में पिनाक क्यों सदा विद्यमान रहता है? आप किसलिये नित्य जटाधारी ब्रह्मचारी के वेश में रहते हैं? प्रभो! वृषध्वज! मेरे इस सारे संशय का समाधान कीजिये, क्योंकि मैं आपकी सहधर्मिणी और भक्त हूँ।

भीष्म जी कहते हैं- राजन! गिरिराजकुमारी उमा के इस प्रकार पूछने पर पिनाकधारी भगवान शिव उनके धैर्य और बुद्धि से बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात उन्होंने पार्वती जी से कहा- ‘सुभगे! रुचिरानने! जिन हेतुओं से मेरे ये रूप हुए हैं, उन्हें बता रहा हूँ, सुनो।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में उमा महेश्वर संवाद नामक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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