त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोदश अध्याय: 13 भाग-11 का हिन्दी अनुवाद
गरुड़ कहते हैं- 'ऋषियों! ऐसा कहकर वे भगवान वही अन्तर्धान हो गये। वे महायोगी तथा आत्मगतिरूप परमेश्वर मेरे देखते-देखते अदृश्य हो गये। इस प्रकार मैंने पूर्वकाल में अप्रमेय महात्मा अच्युत की महिमा का साक्षात्कार किया था। अद्भुत कर्मा परम बुद्धिमान भगवान श्रीहरि की यह सारी लीला जो मैंने प्रत्यक्ष देखकर अनुभव की है, आपको बता दी।' ऋषियों ने कहा- "अहो! आपने यह बड़ा अद्भुत एवं महत्वपूर्ण आख्यान सुनाया। यह परम पवित्र प्रसंग यश, आयु एवं स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला तथा महान मंगलकारी है। परंतप गरुड़ जी! यह पवित्र विषय देवताओं के लिये भी गुह्य रहस्य है। यही ज्ञानियों का ज्ञेय है ओर यही सर्वोत्तम गति है। जो विद्वान प्रत्येक पर्व के अवसर पर इस कथा को सुनायेंगे, वह देवर्षियों द्वारा प्रशंसित पुण्यलोकों को प्राप्त होगा। जो श्राद्ध के समय पवित्रभाव से ब्राह्मणों को यह प्रसंग सुनायेगा, उस श्राद्ध में राक्षसों और असुरों को भाग नहीं मिलेगा। जो दोषदृष्टि से रहित हो क्रोध को जीतकर समस्त प्राणियों के हित में तत्पर हो सदा योगयुक्त रहकर इसका पाठ करेगा, वह भगवान विष्णु के लोक में जायेगा। इसका पाठ करने वाला ब्राह्मण वेदों का पारंगत विद्वान होगा। क्षत्रिय को इसका पाठ करने से युद्ध में विजय की प्राप्ति होगी। वैश्य धन-धान्य से सम्पन्न और शूद्र सुखी होगा।" भीष्म जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर वे सम्पूर्ण महर्षि विनतानन्दन गरुड़ की पूजा करके अपने-अपने आश्रम को चले गये और वहाँ शम-दम के साधन में तत्पर हो गये। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाराज युधिष्ठिर! जिनका मन अपने वश में नहीं है, उन स्थूलदर्शी पुरुर्षों के लिये भगवान श्रीहरि के तत्त्व का ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है। यह धर्मसम्मत श्रुति है। परंतप! इसे ब्रह्मा जी ने आश्चर्यचकित हुए देवताओं को सुनाया था। तात! तत्त्वज्ञानी वसुओं ने मेरी माता गंगा जी के निकट मुझसे यह कथा कही थी और अब तुमसे मैंने कही है। जो अग्निहोत्र में तत्पर, जप-यज्ञ में संलग्न तथा कामनाओं के बन्धन से मुक्त होते हैं, वे अविनाशी परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। जो क्रियात्मक यज्ञों का परित्याग करके जप और होम में तत्पर हो मन-ही-मन भगवान विष्णु का ध्यान करते हैं, वे परम गति को प्राप्त होते हैं। भरतनन्दन! जब निश्चित बुद्धि वाले पुरुष परमात्म-तत्त्व को जानकर परम गति को प्राप्त हो जाते हैं, वही परम मोक्ष या मोक्षद्वार कहलाता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में लोकयात्रा के निर्वाह की विधि का वर्णन विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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