महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 125 श्लोक 36-55

पंचविंशत्यधिकशततम (125) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 36-55 का हिन्दी अनुवाद


उन्होंने भगवान विष्णु से तीनों पिण्डों की गति सुनकर श्राद्ध का रहस्य जान लिया है। देवदूत! तुमने जो श्राद्ध विधि का निर्णय पूछा है, उसके अनुसार तीनों पिण्डों की गति बताई जा रही है। सावधान होकर मुझसे सुनो।

महामते! इस श्राद्ध में जो पहला पिण्ड पानी के भीतर चला जाता है, वह चन्द्रमा को तृप्त करता है और चन्द्रमा स्वयं देवता तथा पितरों को तृप्त करते हैं। इसी प्रकार श्राद्धकर्ता की पत्नी गुरुजनों की आज्ञा से जो मध्यम पिण्ड का भक्षण करती है, उससे प्रसन्न हुए पितामह पुत्र की कामना वाले पुरुष को पुत्र प्रदान करते हैं। अग्नि में जो पिण्ड डाला जाता है, उसके विषय में भी मुझसे समझ लो। उससे पितर तृप्त होते हैं और तृप्त होकर वे मनुष्य की सब कामनाएँ पूर्ण करते हैं।

इस प्रकार तुम्हें यह सब कुछ बताया गया। तीनों पिण्डों की जो गति होती है, उसका भी प्रतिपादन किया गया। श्राद्ध में भोजन के लिये निमन्त्रित हुआ ब्राह्मण उस दिन के लिये यजमान के पितृभाव को प्राप्त हो जाता है, अत: उस दिन उसके लिये मैथुन को त्याज्य मानते हैं। आकाशचारियों में श्रेष्ठ देवदूत! ब्राह्मण को स्नान आदि से पवित्र होकर सदा श्राद्ध में भोजन करना चाहिये। मैंने जो दोष बताये हैं, वे वैसे ही प्राप्त होते हैं। इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। अत: ब्राह्मण स्नान करके पवित्र एवं क्षमाशील हो श्राद्ध में भोजन करे। जो इस प्रकार श्राद्ध का दान देता है, उसकी संतति बढ़ती है।

पितरों के इस प्रकार कहने के बाद विद्युत्प्रभ नाम वाले एक महातपस्वी महर्षि ने अपना प्रश्न उपस्थित किया। उनका रूप सूर्य के समान तेज से प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने धर्म के रहस्यों को सुनकर इन्द्र से पूछा- देवराज! मनुष्य मोहवश जो तिर्यग्योनि में पड़े हुए प्राणियों, मृग, पक्षी और भेड़ आदि को तथा कीड़ों, चीटें-चींटियों एवं सर्पों की हिंसा करते हैं, इससे वे बहुत-सा पाप बटोर लेते हैं। उनके लिये इन पापों से छूटने का क्या उपाय है। उनका यह प्रश्न सुनकर सम्पूर्ण देवता, तपोधन ऋषि तथा महाभाग पितर विद्युत्प्रभ मुनि की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

इन्द्र बोले- मुने! मनुष्य को चाहिये कि कुरुक्षेत्र, गया, गंगा, प्रभास और पुष्कर क्षेत्र का मन-ही-मन चिन्तन करके जल में स्नान करे। ऐसा करने से वह पाप से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे चन्द्रमा राहु के ग्रहण से। जो मनुष्य गाय की पीठ छूता और उसकी पूँछ को नमस्कार करता है, वह मानो उपर्युक्त तीर्थों में तीन दिन तक उपवासपूर्वक रहकर स्नान कर लेता है।

तदनन्तर विद्युत्प्रभ ने इन्द्र से कहा- शतक्रतो! यह सूक्ष्मतर धर्म मैं बता रहा हूँ। इसे ध्यानपूर्वक सुनिये। बरगद की जटा से अपने शरीर को रगड़े, राई का उबटन लगाये और दूध के साथ साठी के चावलों की खीर बनाकर भोजन करे तो मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।

एक दूसरा गूढ़ रहस्य जिसका ऋषियों ने चिन्तन किया है, सुनिये। इसे मैंने भगवान शंकर के स्थान में भाषण करते हुए बृहस्पति जी के मुख से भगवान रुद्र के साथ ही सुना था। देवेश! शचीपते! उसे ध्यानपूर्वक सुनिये। जो पर्वत पर चढ़कर भोजन से पूर्व एक पैर से खड़ा हो दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये हाथ जोड़े वहाँ अग्‍नि देव की ओर देखता है, वह महान तपस्या से युक्‍त होकर उपवास करने का फल पाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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