चतुर्विंशत्यधिकशततम (124) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-33 का हिन्दी अनुवाद
निश्चय ही तुम लज्जावश किसी पर अपना आन्तरिक अभिप्राय नहीं प्रकट करना चाहते, क्योंकि तुम्हें अपनी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के विषय में संदेह है, इसीलिये चिन्तावश सूखते और पीले पड़ते जा रहे हो। निश्चय ही संसार में नाना प्रकार की बुद्धि और भिन्न-भिन्न रुचि रखने वाले लोग रहते हैं। उन सबको तुम अपने गुणों से वश में करना चाहते हो। इसीलिये क्षीणकाय और पाण्डुवर्ण के हो रहे हो अथवा यह भी हो सकता है कि तुम विद्वान न होकर भी विद्या से मिलने वाले यश को पाना चाहते हो। डरपोक और कायर होने पर भी पराक्रमजनित कीर्ति पाने की अभिलाषा रखते हो और अपने पास बहुत थोड़ा धन होने पर भी दानवीर होने का यश पाने के लिये उत्सुक हो। इसीलिये कृशकाय और पीले हो रहे हो। तुमने कोई कार्य किया, जिसका चिरकाल से अभिलषित कोई फल तुम्हें प्राप्त होने वाला था, किंतु तुम्हें तो वह प्राप्त हुआ नहीं और दूसरे लोग उसे हर ले गये। इसीलिये तुम्हारे शरीर की कान्ति फीकी पड़ गयी है और दिनों-दिन तुम दुबले होते जा रहे हो। एक बात यह भी ध्यान में आती है कि तुम्हें तो अपना दोष दिखाई नहीं देता तथापि दूसरे लोग अकारण ही तुम्हें कोसते रहते हैं। शायद इसीलिये तुम कान्तिहीन और दुर्बल होते जा रहे हो। तुम विरक्त साधुओं को गृहस्थ, दुर्जनों को वनवासी तथा संन्यासियों को मठ-मन्दिर में आसक्त देखते हो, इसीलिये सफेद औद दुर्बल होते जा रहे हो। तुम्हारे स्नेही बन्धु-बान्धव रोग आदि से पीड़ित होकर महान दु:ख भोगते हैं और तुम उन्हें उस पीड़ाजनित कष्ट से मुक्त नहीं कर पाते हो तथा अपने आपको भी तुम अर्थ-लाभ से हीन पाते हो, शायद इसीलिये तुम सफेद और दुबले-पतले हो गये हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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