महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 116 श्लोक 19-32

षोडशाधिकशततम (116) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: षोडशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद


गर्भ में आये हुए प्राणी मल-मूत्र और पसीनों के बीच में रहकर खारे, खट्टे और कड़वे आदि रसों से, जिनका स्पर्श अत्यन्त कठोर और दुःखदायी होता है, पकते रहते हैं, जिससे उन्हें बड़ा भारी कष्ट होता है। मांसलोलुप जीव जन्म लेने पर भी परवश होते हैं। वे बार-बार शस्त्रों से काटे और पकाये जाते हैं। उनकी यह बेबसी प्रत्यक्ष देखी जाती है। वे अपने पापों के कारण कुम्भीपाक नरक में राँधे जाते हैं और भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेकर गला घोंट-घोंटकर मारे जाते हैं। इस प्रकार उन्हें बारंबार संसार चक्र में भटकना पड़ता है।

इस भूमण्डल पर अपने आत्मा से बढ़कर कोई प्रिय वस्तु नहीं है। इसलिये सब प्राणियों पर दया करे और सबको अपना आत्मा ही समझे।

राजन! जो जीवन भर किसी भी प्राणी का मांस नहीं खाता, वह स्वर्ग में श्रेष्ठ एवं विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है। जो जीवित रहने की इच्छा वाले प्राणियों के मांस को खाते हैं, वे दूसरे जन्म में उन्हीं प्राणियों द्वारा भक्षण किये जाते हैं। इस विषय में मुझे संशय नहीं है। भरतनन्दन! (जिसका वध किया जाता है, वह प्राणी कहलाता है) 'मां स भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम्।' अर्थात् ‘आज मुझे वह खाता है तो कभी मैं भी उसे खाऊँगा।’ यही मांस का मांसत्त्व है- इसे ही मांस शब्द का तात्पर्य समझो।

राजन! इस जन्म में जिस जीव की हिंसा होती है, वह दूसरे जन्म में सदा ही अपने घातक का वध करता है। फिर भक्षण करने वाले को भी मार डालता है। जो दूसरों की निन्दा करता है, वह स्वयं भी दूसरों के क्रोध और द्वेष का पात्र होता है। जो जिस-जिस शरीर से जो-जो कर्म करता है, वह उस-उस शरीर से भी उस-उस कर्म का फल भोगता है। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है और अहिंसा परम तपस्या है। अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है और अहिंसा परम सुख है।

सम्पूर्ण यज्ञों में जो दान किया जाता है, समस्त तीर्थों में जो गोता लगाया जाता है तथा सम्पूर्ण दानों का जो फल है- यह सब मिलकर भी अहिंसा के बराबर नहीं हो सकता। जो हिंसा नहीं करता, उसकी तपस्या अक्षय होती है। वह सदा यज्ञ करने का फल पाता है। हिंसा न करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों के माता-पिता के समान है।

कुरुश्रेष्ठ! यह अहिंसा का फल है। यही क्या, अहिंसा का तो इससे भी अधिक फल है। अहिंसा से होने वाले लाभों का सौ वर्षों में भी वर्णन नहीं किया जा सकता।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में अहिंसा के फल का वर्णन विषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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