चतुरधिकशततम (104) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 37-49 का हिन्दी अनुवाद
मल-मूत्र त्यागने और रास्ता चलने के बाद तथा स्वाध्याय और भोजन करने से पहले पैर धो लेने चाहिये। जिस पर किसी की दूषित दृष्टि न पड़ी हो, जो जल से धोया गया हो तथा जिसकी ब्राह्मण लोग वाणी द्वारा प्रशंसा करते हों- ये ही तीन वस्तुएँ देवताओं ने ब्राह्मण के उपयोग में लाने योग्य और पवित्र बतायी हैं। जौ के आटे का हलवा, खिचड़ी, फल का गूदा, पूड़ी और खीर- ये सब वस्तुएँ अपने लिये नहीं बनानी चाहिये। देवताओं को अर्पण करने के लिये ही इनको तैयार करना चाहिये। प्रतिदिन अग्नि की सेवा करे, नित्यप्रति भिक्षु को भिक्षा दे और मौन होकर प्रतिदिन दंतधावन करे। सांयकाल में न सोये, नित्य स्नान करे और सदा पवित्रतापूर्वक रहे। सूर्य उदय होने तक कभी न सोये। यदि किसी दिन ऐसा हो जाये तो प्रायश्चित करे। प्रतिदिन प्रात:काल सोकर उठने के बाद पहले माता-पिता को प्रणाम करे। फिर आचार्य तथा अन्य गुरुजनों का अभिवादन करे। इससे दीर्घ आयु प्राप्त होती है। शास्त्रों में जिन काष्ठों का दांतन निसिद्ध माना गया है, उन्हें सदा ही त्याग दे- कभी काम में न ले। शास्त्रविहित काष्ठ का ही दंतधावन करे; परंतु पर्व के दिन उसका भी परित्याग कर दे। सदा एकाग्रचित्त हो दिन में उत्तर की ओर मुंह करके ही मल-मूत्र का त्याग करे। दंतधावन किये बिना देवताओं की पूजा न करे। देवपूजा किये बिना गुरु, वृद्ध, धार्मिक तथा विद्वान पुरुष को छोड़कर दूसरे किसी के पास न जाये। अत्यन्त बुद्धिमान पुरुषों को मलिन दर्पण में कभी अपना मुंह नहीं देखना चाहिये। अपरिचित तथा गर्भिणी स्त्री के पास भी न जाये। विद्वान पुरुष विवाह से पहले मैथुन न करे, अन्यथा वह ब्रह्मचर्य व्रत को भंग करने का अपराधी माना जाता है। ऐसी दशा में उसे प्रायश्चित करना चाहिये। वह परायी स्त्री की ओर न तो देखे और न एकान्त में उसके साथ एक आसन पर बैठे ही। इन्द्रियों को सदा अपने वश में रखे। स्वप्न में भी शुद्ध मन वाला होकर रहे। उत्तर तथा पश्चिम की ओर सिर करके न सोये। विद्वान पुरुष को पूर्व अथवा दक्षिण की ओर सिर करके ही सोना चाहिये। टूटी और ढीली खाट पर नहीं सोना चाहिये। अंधेरे में पड़ी हुई शय्या पर भी सहसा शयन करना उचित नहीं है (उजाला करके उसे अच्छी तरह देख लेना चाहिये)। किसी दूसरे के साथ एक खाट पर न सोये। इसी तरह पलंग पर कभी तिरछा होकर नहीं, सदा सीधे ही सोना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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