द्वयधिकशततम (102) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वयधिकशततम अध्याय: श्लोक 57-63 का हिन्दी अनुवाद
शतक्रतु ने कहा- 'विप्रवर! आपका पुत्रस्वरूप यह हाथी आप ही की ओर देखता हुआ आ रहा है और पास आकर आपके दोनों चरणों को अपनी नासिका से सूंघता है। अब आप मेरा कल्याण-चिंतन कीजिये, आप को नमस्कार है।' गौतम बोले- 'सुरेन्द्र! मैं सदा ही यहाँ आपके कल्याण का चिंतन करता हूँ और सदा आपके लिये अपनी पूजा अर्पित करता हूँ। शक्र आप भी मुझे कल्याण प्रदान करें। मैं आपके दिये हुए इस हाथी को ग्रहण करता हूँ।' शतक्रतु ने कहा- 'जिन सत्यवादी मनीषी महात्माओं की हृदय गुफा में संपूर्ण वेद निहित हैं, उनमें आप प्रमुख महात्मा हैं। केवल आपके कल्यण-चिन्तन से मैं समृद्धशाली हो गया। इसलिये आज मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूँ। ब्राह्मण मैं बड़े हर्ष के साथ कहता हूँ कि आप अपने पुत्रभूत हाथी के साथ शीघ्र चलिये। आप अभी चिरकाल के लिये कल्याणमय लोकों की प्राप्ति के अधिकारी हो गये हैं।' पुत्रस्वरूप हाथी के साथ गौतम को आगे करके वज्रधारी इन्द्र श्रेष्ठ पुरुषों के साथ दुर्गम देवलोक में चले गये। जो पुरुष जितेन्द्रिय होकर प्रतिदिन इस प्रसंग को सुनेगा अथवा इसका पाठ करेगा, वह गौतम ब्राह्मण की भाँति ब्रह्म लोक में जायेगा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में हस्तिकूट नामक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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