पन्चनवतितम (95) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चनवतितम अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद
जमदग्नि ने कहा- 'रेणुके! जिसने तुझे कष्ट पहुँचाया है, उस उद्दीप्त किरणों वाले सूर्य को आज मैं अपने बाणों से, अपनी अस्त्राग्नि के तेज से गिरा दूँगा।' भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर महर्षि जमदग्नि ने अपने दिव्य धनुष की प्रत्यंचा खींची और बहुत-से बाण हाथ में लेकर सूर्य की ओर मुंह करके खड़े हो गये। जिस दिशा की ओर सूर्य जा रहे थे, उसी ओर उन्होंने भी अपना मुंह कर लिया था। कुन्तीनन्दन! उन्हें युद्ध के लिये तैयार देख सूर्यदेव ब्राह्मण का रूप धारण करके उनके पास आये ओर बोले- 'ब्रह्मन! सूर्य ने आपका क्या अपराध किया है? सूर्यदेव तो आकाश में स्थित होकर अपनी किरणों द्वारा वसुधा का रस खींचते हैं और बरसात में पुनः उसे बरसा देते हैं। विप्रवर! उसी वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है, जो मनुष्यों के लिये सुखदायक है, अन्न ही प्राण है, यह बात वेद में भी बतायी गयी है। ब्रह्मन! अपने किरण समूह से घिरे हुए भगवान सूर्य बादलों में छिपकर सातों द्वीपों की पृथ्वी को वर्षा के जल से आप्लावित करते हैं। उसी से नाना प्रकार की ओषधियाँ, लताएँ, पत्र-पुष्प, घास-पात, आदि उत्पन्न होते हैं। प्रभो! प्रायः सभी प्रकार के अन्न वर्षा के जल से उत्पन्न होते हैं। जातकर्म, व्रत, उपनयन, विवाह, गोदान, यज्ञ, सम्पत्ति, शास्त्रीय दान, संयोग और धनसंग्रह आदि सारे कार्य अन्न से ही सम्पादित होते हैं। भृगुनन्दन! इस बात को आप भी अच्छी तरह जानते हैं। जितने सुन्दर पदार्थ हैं अथवा जो भी उत्पादक पदार्थ हैं, वे सब अन्न से ही प्रकट होते हैं। यह सब मैं ऐसी बात बता रहा हूँ, जो आप को पहले से ही विदित है। विप्रवर! ब्रह्मर्षे! मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सब आप भी जानते हैं। भला, सूर्य को गिराने से आपको क्या लाभ? अतः मैं प्रार्थनापूर्वक आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ (कृपया सूर्य को नष्ट करने का संकल्प छोड़ दीजिये)।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में छत्र और उपानह की उत्पत्ति नामक पंचानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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