महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 90 श्लोक 33-46

नवतितम (90) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद


जो मोक्ष-धर्म का ज्ञान रखने वाले संयमी और उत्तम प्रकार से व्रत का आचरण करने वाले योगी हैं, पांचरात्र आगम के जानने वाले श्रेष्ठ पुरुष हैं, परम भागवत हैं, वानप्रस्थ-धर्म का पालन करने वाले, कुल में श्रेष्ठ और वैदिक आचार का अनुष्ठान करने वाले हैं। जो मन को संयम में रखकर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को इतिहास सुनाते हैं, जो महाभाष्य और व्याकरण के विद्वान हैं तथा जो पुराण और धर्मशास्‍त्रों का न्यायपूर्वक अध्ययन करके उनकी आज्ञा के अनुसार विधिवत आचरण करने वालें हैं, जिन्होंने नियमित समय तक गुरुकुल में निवास करके वेदाध्ययन किया है, जो परीक्षा के सहस्रों अवसरों पर सत्यवादी सिद्ध हुऐ हैं तथा जो चारों वेदों के पढ़ने-पढ़ाने में अग्रगण्य हैं, ऐसे ब्राह्मण पंक्ति को जितनी दूर देखते हैं उतनी दूर में बैठे हुए ब्राह्मणों को पवित्र कर देते हैं। पंक्ति को पवित्र करने के कारण ही उन्हें पंक्ति-पावन कहा जाता है।

ब्रह्मवादी पुरुषों की यह मान्यता है कि वेद की शिक्षा देने वाले एवं ब्रह्मज्ञानी पुरुषों के वंश में उत्पन्न हुआ ब्राह्मण अकेला ही साढ़े तीन कोस तक का स्थान पवित्र कर सकता है। जो ऋत्विक या अध्यापक न हो, वह भी यदि ऋत्विजों की आज्ञा लेकर श्राद्ध में अग्रासन ग्रहण करता है तो पंक्ति के दोष को हर लेता है अर्थात दूर कर देता है।

राजन! यदि कोई वेदज्ञ ब्राह्मण सब प्रकार के पंक्ति-दोषों से रहित है और पतित नहीं हुआ है तो वह पंक्तिपावन ही है। इसलिये सब प्रकार की चेष्टाओं से ब्राह्मणों की परीक्षा करके ही उन्हें श्राद्ध में निमंत्रित करना चाहिये। वे स्वकर्म में तत्पर रहने वाले, कुलीन और बहुश्रुत होने चाहिये। जिसके श्राद्धों के भोजन में मित्रों की प्रधानता रहती है, उसके वे श्राद्ध एवं हविष्य पितरों और देवताओं को तृप्त नहीं करते हैं तथा वह श्राद्धकर्ता पुरुष स्वर्ग में नहीं जाता है। जो मनुष्य श्राद्ध में भोजन देकर उससे मित्रता जोड़ता है, वह मृत्यु के बाद देवमार्ग से नहीं जाने पाता। जैसे पीपल का फल डंठल से टूटकर नीचे गिर जाता है, वैसे ही श्राद्ध को मित्रता का साधन बनाने वाला पुरुष स्वर्गलोक से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिये श्राद्धकर्ता को चाहिये कि वह श्राद्ध में मित्र को निमंत्रण न दे।

मित्रों का संतुष्ट करने के लिये धन देना उचित है। श्राद्ध में भोजन तो उसे ही कराना चाहिये जो शत्रु या मित्र न होकर मध्यस्थ हो। जैसे ऊसर में बोया हुआ बीज न तो जमता है और न बोने वाले को उसका कोई फल मिलता है, उसी प्रकार अयोग्य ब्राह्मणों को भोजन कराया हुआ श्राद्ध का अन्न, न इस लोक में लाभ पहुँचाता है, न परलोक में ही कोई फल देता है। जैसे घास-फूस की आग शीघ्र ही शांत हो जाती है, उसी प्रकार स्वाध्यायहीन ब्राह्मण तेजहीन हो जाता है, अतः उसे श्राद्ध का दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि रात में कोई भी हवन नहीं करता।

जो लोग एक-दूसरे के यहाँ श्राद्ध में भोजन करके परस्पर दक्षिणा देते और लेते हैं, उनकी वह दान-दक्षिणा 'पिशाच-दक्षिणा' कहलाती है। वह न देवताओं को मिलती है, न पितरों को। जिसका बछड़ा मर गया है, ऐसी पुण्यहीना गौ जैसे दु:खी होकर गौशाला में ही चक्कर लगाती रहती है, उसी प्रकार आपस में दी और ली हुई दक्षिणा इसी लोक में रह जाती है, वह पितरों तक नहीं पहुँचने पाती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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