महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 86 श्लोक 18-35

षडशीतितम (86) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: षडशीतितम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद


ऋषियों ने स्तुति की और गन्धर्वों ने उनका यश गाया। ब्राह्मणों के प्रेमी उस कुमार के छ: मुख, बारह नेत्र, बारह भुजाएँ, मोटे कंधे और अग्नि तथा सूर्य के समान कांति थी। वे सरकण्डों के झुण्ड झुरमुट में सो रहे थे। उन्हें देखकर ऋषियों सहित देवताओं को बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ और यह विश्‍वास हो गया कि अब तारकासुर मारा जायेगा। तदनन्तर सब देवता उन्हें उनकी प्रिय वस्तुएँ भेंट करने लगे। पक्षियों ने खेल-कूद में लगे हुए कुमार को खिलौने दिये, गरुड़ ने विचित्र पंखों से सुशोभित अपना पुत्र मयूर भेंट किया। राक्षसों ने सूअर और भैंसा- ये दो पशु उन्हें उपहार रूप में दिये। गरुड़ के भाई अरुण ने अग्नि के समान लाल वर्ण वाला एक मुर्गा भेंट किया। चन्द्रमा ने भेड़ दी, सूर्य ने मनोहर कांति प्रदान की, गोमाता सुरभि देवी ने एक लाख गौएँ प्रदान कीं। अग्नि ने गुणवान बकरा, इला ने बहुत-से फल-फूल, सुधन्वा ने छकड़ा और विशाल कूबर से युक्त रथ दिये। वरुण ने वरुणलोक के अनेक सुन्दर एवं दिव्य हाथी दिये। देवराज इन्द्र ने सिंह, व्याघ्र, हाथी, अन्यान्य पक्षी, बहुत से भयानक हिंसक जीव तथा नाना प्रकार के क्षत्र भेंट किये।

राक्षसों और असुरों का समुदाय उन शक्तिशाली कुमार के अनुगामी हो गये। उन्हें बड़ा देख तारकासुर ने युद्ध के लिये ललकारा, परंतु अनेक उपाय करके भी वह उन प्रभावशाली कुमार को मारने में सफल न हो सका। देवताओं ने गुहावासी कुमार की पूजा करके उनका सेनापति के पद पर अभिषेक किया और तारकासुर ने देवताओं पर जो अत्याचार किया था, सो कह सुनाया। महापराक्रमी देव सेनापति प्रभु गुह ने वृद्धि को प्राप्त होकर अपनी अमोघ शक्ति से तारकासुर का वध कर डाला। खेल-खेल में ही उन अग्निकुमार के द्वारा जब तारकासुर मार डाला गया, तब ऐश्‍वर्यशाली देवेन्द्र पुनः देवताओं के राज्य पर प्रतिष्ठित किये गये। प्रतापी स्कन्द सेनापति के ही पद पर रहकर बड़ी शोभा पाने लगे। वे देवताओं के ईश्‍वर तथा संरक्षक थे और भगवान शंकर का सदा ही हित किया करते थे। ये अग्निपुत्र भगवान स्कन्द सुवर्णमय विग्रह धारण करते हैं। वे नित्य कुमारावस्था में ही रहकर देवताओं के सेनापति पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं।

सुवर्ण कार्तिकेय जी के साथ ही उत्पन्न हुआ है और अग्नि का उत्कृष्ट तेज माना गया है। इसलिये वह मंगलमय, अक्षय एवं उत्तम रत्न है। कुरुनन्दन! नरेश्‍वर! इस प्रकार पूर्वकाल में वसिष्ठ जी ने परशुराम को यह सारा प्रसंग एवं सुवर्ण की उत्पत्ति और माहत्म्य सुनाया था। अतः तुम स्वर्ण दान के लिये प्रयत्न करो। परशुराम जी सुवर्ण का दान करके सब पापों से मुक्त हो गये और स्वर्ग में उस महान स्थान को प्राप्त हुए, जो दूसरे मनुष्यों के लिये सर्वथा दुर्लभ है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्‍तर्गत दानधर्म पर्व में तारकवध का उपाख्यान नामक छियासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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