पन्चाशीतितमो (85) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चाशीतितमो अध्याय: श्लोक 94-121 का हिन्दी अनुवाद
प्रभो! ब्रह्मा जी के वीर्य की जब अग्नि में आहुति दी गयी, तब उससे तीन शरीरधारी पुरुष उत्पन्न हुए, जो अपने-अपने कारणजनित गुणों से सम्पन्न थे। भृगु अर्थात अग्नि की ज्वाला से उत्पन्न होने के कारण एक पुरुष का नाम ‘भृगु’ हुआ। अंगारों से प्रकट हुए दूसरे पुरुष का नाम ‘अंगिरा’ हुआ और अंगारों के आश्रित जो स्वल्पमात्र ज्वाला या भृगु होती है, उससे ‘कवि’ नामक तीसरे पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ। भृगु जी ज्वालाओं के साथ ही उत्पन्न हुऐ थे, उससे भृगु कहलाये। उसी अग्नि की मरीचियों से मरीची उत्पन्न हुए; जिनके पुत्र मारीच-कश्यप नाम से विख्यात हैं। तात! अंगारों से अंगिरा और कुशों के ढेर से वालखिल्य नामक ऋषि प्रकट हुए थे। विभो! अत्रैव- उन्हीं कुश समूहों से एक और ब्रह्मर्षि उत्पन्न हुए, जिन्हें लोग ‘अत्रि’ कहते हैं। भस्म-राशियों से ब्रह्मर्षियों द्वारा सम्मानित वैखानसों की उत्पत्ति हुई, जो तपस्या, शास्त्र-ज्ञान और सद्गुणों के अभिलाषी होते हैं। अग्नि के अश्रु से दोनों अश्विनीकुमार प्रकट हुए, जो अपनी रूप-संपत्ति के द्वारा सर्वत्र सम्मानित हैं। शेष प्रजापतिगण उनके श्रवण आदि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए। रोमकूपों से ऋषि, पसीने से छन्द और वीर्य से मन की उत्पत्ति हुई। इस कारण से शास्त्र-ज्ञान सम्पन्न महर्षियों ने वेदों की प्रमाणिकता पर दृष्टि रखते हुए अग्नि को सर्वदेवमय बताया है। उस यज्ञ में जो समिधाएँ काम में ली गयीं तथा उनसे जो रस निकला, वे ही सब मास, पक्ष, दिन, रात एवं मुहूर्त रूप हो गये और अग्नि का जो पित्त था, वह उग्र तेज होकर प्रकट हुआ। अग्नि के तेज को लोहित कहते हैं, उस लोहित से कनक उत्पन्न हुआ। उस कनक को मैत्र जानना चाहिये तथा अग्नि से धूम से वसुओं की उत्पत्ति बताई गयी है। अग्नि की जो लपटें होती हैं, वे ही एकादश रुद्र तथा अत्यन्त तेजस्वी द्वादश आदित्य हैं तथा उस यज्ञ में जो दूसरे-दूसरे अंगारे थे, वे ही आकाश स्थित नक्षत्र मण्डलों में ज्योतिःपुंज के रूप में स्थित हैं। इस लोक के जो आदि स्रष्टा हैं, उन ब्रह्मा जी का कथन है कि अग्नि परब्रह्म स्वरूप हैं। वही अविनाशी परब्रह्म परमात्मा हैं, वही सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाला है। यह गोपनीय रहस्य ज्ञानी पुरुष बताते हैं। तब वरुण एवं वायुरूप महादेव जी ने कहा- 'देवताओं! यह मेरा दिव्य यज्ञ है। मैं ही इस यज्ञ का गृहस्थ यजमान हूँ। आकाशचारी देवगण! पहले जो तीन पुरुष प्रकट हुए हैं, वे भृगु, अंगिरा और कवि मेरे पुत्र हैं, इसमें संशय नहीं है। इस बात को तुम जान लो; क्योंकि इस यज्ञ का जो कुछ फल है, उस पर मेरा ही अधिकार है।' अग्नि बोले- 'ये तीनों संतानें मेरे अंगों से उत्पन्न हुई हैं और मेरे ही आश्रय में विधाता ने इनकी सृष्टि की है। अतः ये तीनों मेरे ही पुत्र हैं। वरुण रूपधारी महादेव जी का इन पर कोई अधिकार नहीं है।' तदनन्तर लोक पितामह लोकगुरु ब्रह्मा जी ने कहा- 'ये सब मेरी ही संताने हैं; क्योंकि मेरे ही वीर्य की आहुति दी गयी है; जिससे इनकी उत्पत्ति हुई है। मैं ही यज्ञ का कर्ता और अपने वीर्य का हवन करने वाला हूँ। जिसका वीर्य होता है, उसको ही उसका फल मिलता है। यदि इनकी उत्पत्ति में वीर्य को ही कारण माना जाये तो निश्चय ही ये मेरे पुत्र हैं।' इस प्रकार विवाद उपस्थित होने पर समस्त देवताओं ने ब्रह्मा जी के पास जा दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उनको प्रणाम किया और कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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