महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 122-152

पन्चाशीतितमो (85) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चाशीतितमो अध्याय: श्लोक 122-152 का हिन्दी अनुवाद


इस प्रकार विवाद उपस्थित होने पर समस्त देवताओं ने ब्रह्मा जी के पास जाकर दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उनको प्रणाम किया और कहा- 'भगवन! हम सब लोग और चराचर सहित सारा जगत ये सब-के-सब आपकी ही संतान हैं। अतः अब यह प्रकाशमान अग्नि और ये वरुणरूपधारी ईश्वर महादेव भी अपना मनोवांछित फल प्राप्त करें।' तब ब्रह्मा जी की आज्ञा से जल-जन्तुओं के स्वामी वरुणरूपी भगवान शिव ने सबसे पहले सूर्य के समान तेजस्वी भृगु को पुत्र रूप में ग्रहण किया। फिर उन्होंने ही अंगिरा को अग्नि की संतान निश्चित किया। तदनन्तर तत्त्वज्ञानी ब्रह्मा ने कवि को अपनी संतान के रूप में ग्रहण किया। उस समय संतान के कर्तव्य को जानने वाले महर्षि भृगु 'वारुण' नाम से विख्यात हुए। तेजस्वी अंगिरा 'आग्नेय' तथा महायशस्वी कवि 'ब्रह्म' नाम से विख्यात हुए। भृगु और अंगिरा- ये दोनों लोक में जगत की सृष्टि का विस्तार करने वाले बतलाये गये हैं। इस प्रकार ये तीनों प्रजापति हैं और शेष सब लोग इनकी संताने हैं। ये सारा जगत इन्हीं की संतति है, इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो।

भृगु के सात पुत्र व्यापक हुए, जो उन्हीं के समान गुणवान थे। च्यवन, वज्रशीर्ष, शुचि, और्व, शुक्र, वरेण्य तथा सवन- ये ही उन सातों के नाम हैं। सभी भृगुवंशी सामान्यतः वारुण कहलाते हैं। जिनके वंश में तुम भी उत्पन्न हुए हो। अंगिरा के आठ पुत्र हैं, वे भी 'वारुण' कहलाते हैं। (वरुण के यज्ञ में उत्पन्न होन से ही उनकी वारुण संज्ञा हुई है।) उनके नाम इस प्रकार हैं- बृहस्पति, उतथ्य, पयस्य, शान्ति, घोर, विरूप, संवर्त और आठवां सुधन्वा। ये आठ अग्नि के वंश में उत्पन्न हुए हैं। अतः 'आग्नेय' कहलाते हैं। वे सब-के-सब ज्ञाननिष्ठ एवं निरामय (रोग-शोक से रहित) हैं। ब्रह्मा के पुत्र जो कवि हैं, उनके पुत्रों की भी 'वारुण' की संज्ञा है। वे आठ हैं, सभी पुत्रोचित्त गुणों से सम्पन्न हैं। उन्हें शुभलक्षण एवं ब्रह्मज्ञानी माना गया है। उनके नाम ये हैं- कवि, काव्य, धृष्णु, बुद्धिमान शुक्राचार्य, भृगु, विरजा, काशी तथा धर्मज्ञ उग्र। ये आठ कवि के पुत्र हैं। इन सबके द्वारा यह सारा जगत व्याप्त है। ये आठों प्रजापति हैं और प्रजा के गुणों से युक्त होने के कारण प्रजा भी कहे गये हैं। भृगुश्रेष्ठ! इस प्रकार अंगिरा, कवि और भृगु के वंशजों तथा संतान-परम्पराओं से सारा जगत व्याप्त है। विप्रवर! तात! प्रभावशाली जलेश्वर वरुणरूप शिव ने पहले कवि और भृगु को पुत्र रूप से ग्रहण किया था, इसलिये वे वारुण कहलाये। ज्वालाओं से सुशोभित होने वाले अग्निदेव ने वरुणरूप शिव से अंगिरा को पुत्ररूप में प्राप्त किया; इसलिये अंगिरा के वंश में उत्पन्न सभी पुत्र अग्निवंशी एवं वारुण नाम से भी जानने योग्य हैं।

पूर्वकाल में देवताओं ने पितामह ब्रह्मा को प्रसन्न किया और कहा- ‘प्रभो! आप ऐसी कृपा कीजिये, जिससे ये भृगु आदि के वंशज इस पृथ्वी का पालन करते हुए अपनी संतानों द्वारा हमारा संकट से उद्धार करें। ये सभी प्रजापित हों और सभी अत्यन्त तपस्वी हों। ये आपके कृपाप्रसाद से इस समय इस संपूर्ण लोक का संकट से उद्धार करेंगे। आपकी दया से ये सब लोग वंश प्रर्वतक, आपके तेज की वृद्धि करने वाले तथा वेदज्ञ पुण्यात्मा हों। इन सबका स्वभाव सौम्य हो। प्रजापतियों के वंश में उत्पन्न हुए ये महर्षिगण सदा देवताओं के पक्ष में रहें तथा तप और उत्तम ब्रह्मचर्य का बल प्राप्त करें। प्रभो! पितामह! ये सब और हम लोग आप ही की संतान हैं; क्योंकि देवताओं और ब्राह्मणों की सृष्टि करने वाले आप ही हैं। पितामह! कश्यप से लेकर समस्त भृगुवंशियों तक हम सब लोग आप ही की संतान हैं- ऐसा सोचकर आपसे अपनी भूलों के लिये क्षमा चाहते हैं। वे प्रजापतिगण इसी रूप से प्रजाओं को उत्पन्न करेंगे और सृष्टि के प्रारंभ से लेकर प्रलयपर्यन्त अपने आप को मर्यादा में स्थापित किये रहेंगे।'

देवताओं के ऐसा कहने पर लोकपितामह ब्रह्मा प्रसन्न होकर बोले- 'तथास्तु' (ऐसा ही हो)। तत्पश्‍चात देवता जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। इस प्रकार पूर्वकाल में जबकि सृष्टि के प्रारम्भ का समय था, वरुणशरीर धारण करने वाले सुरश्रेष्ठ महात्मा रुद्र के यज्ञ में पूर्वोक्त वृत्तांत घटित हुआ था। अग्नि ही ब्रह्मा, पशुपति, शर्व, रुद्र और प्रजापतिरूप हैं। यह सुवर्ण अग्नि की ही संतान है- ऐसी सबकी मान्यता है। जमदग्निन्दन परशुराम! वेद-प्रमाण का ज्ञाता पुरुष वैदिक श्रुति के दृष्टांत के अनुसार अग्नि के अभाव में उसके स्थान पर सुवर्ण का उपयोग करता है। कुशों के समूहों पर, उस पर रखे हुए सुवर्ण पर, बांबी के छिद्र में, बकरे के दाहिने कान पर, जिस मार्ग से छकड़ा आता-जाता हो उस भूमि पर, दूसरे के जलाशय में तथा ब्राह्मण के हाथ पर वैदिक प्रमाण मानने वाले पुरुष अग्निस्वरूप मानकर होम आदि कर्म करते हैं और वह होम कार्य सम्पन्न होने पर भगवान अग्निदेव आनन्ददायिनी समृद्धि का अनुभव करते हैं। अतः सब देवताओं में अग्नि ही श्रेष्ठ हैं। ये हमने सुना है। ब्रह्मा से अग्नि की उत्पत्ति भी है और अग्नि से सुवर्ण की। इसलिये जो धर्मदर्शी पुरुष सुवर्ण का दान करते हैं; वे समस्त देवताओं का ही दान करते हैं, ये हमारे सुनने में आया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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