महर्षि शाण्डिल्य और उनका भगवत्प्रेम 4

महर्षि शाण्डिल्य और उनका भगवत्प्रेम



महर्षि शाण्डिल्य भगवान की लीलास्थलियों में भ्रमण करते हुए, भगवान के दिव्य चरित्र का अनुस्मरण करते हुए विभोर रहते हैं और भगवत्प्रेमियों को भगवत-लीलाधाम का रहस्य भी बताते हैं। एक बार ऐसे ही भ्रमण करते हुए महर्षि व्रजभूमि में पहुँच गये और महाराज परीक्षित तथा राजा वज्रनाभ की प्रार्थना पर उन्होंने उन्हें भगवान की अंतरंग प्रेमलीलास्थली व्रजभूमि का रहस्य बताते हुए कहा- प्रिय परीक्षित और वज्रनाभ! मैं तुम लोगों को व्रजभूमि का रहस्य बतलाता हूँ। तुम दत्तचित होकर सुनो। 'व्रज' शब्द का अर्थ है-व्याप्ति। इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण ही इस भूमि का नाम 'व्रज' पड़ा है। सत्तव, रज तथा तम-इन तीन गुणों से अतीत जो परब्रह्म है, वही व्यापक है। इसलिये उसे व्रज कहते हैं। वह सदानंदस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवनमुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं। इस परब्रह्मस्वरूप व्रजधाम में नंदनंदन भगवान श्रीकृष्ण का निवास है। उनका एक-एक अंग सच्चिदानंदस्वरूप है। वे आत्मराम और आप्तकाम हैं। प्रेमरस में डूबे हुए रसिकजन ही उनका अनुभव करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा हैं- राधिका; उस में रमण करने के कारण ही रहस्य-रस के मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष उन्हें 'आत्माराम' कहते हैं। 'काम' शब्द का अर्थ है कामना-अभिलाषा; व्रज में भगवान् श्रीकृष्ण के वाञ्छित पदार्थ हैं- गौएँ, ग्वालबाल, गोपियाँ और उनके साथ लीला-विहार आदि; वे सब-के-सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं। इसी से श्रीकृष्ण को 'आप्तकाम' कहा गया है। भगवान् श्रीकृष्ण की यह रहस्यलीला प्रकृति से परे है। वे जिस समय प्रकृति के साथ खेलने लगते हैं, उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीला का अनुभव करते हैं। प्रकृति के साथ होने वाली लीला में ही रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के द्वारा सृष्टि स्थित और प्रलय की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह निश्चय होता है कि भगवान की लीला दो प्रकार की है- एक वास्तवी और दूसरी व्यावहारिकी। वास्तवी लीला स्वसंवेद्य है-उसे स्वयं भगवान और उनके रसिक भक्तजन भी जानते हैं। जीवों के सामने जो लीला होती है, वह व्यावहारिकी लीला है। वास्तवी लीला के बिना व्यावहारिकी लीला नहीं हो सकती; परंतु व्यावहारिकी लीला का वास्तविक लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता।[1]

छांदोग्य श्रुति में आपके द्वारा उपदिष्ट विद्या को 'शाण्डिल्यविद्या' के नाम से अभिहीत किया गया है। उसमें आपने बताया है कि सारा ब्रह्माण्ड ब्रह्म है, इसका कारण यह है कि परमात्मा 'तज्जलानिति' है अर्थात् यह संसार उसी परमात्मा से उत्पन्न होता है, उसी में लीन होता है और उसी से प्रतिपालित होता है। पुरुष भावनामय है। उसकी जैसी भावना होगी, वैसी ही उसे गति मिलेगी। परमात्मा सत्य संकल्प, सर्वकर्ता तथा सर्वगत हैं, वे दयालु हम लोगों के हृदय में ही विराजमान हैं। यदि हम लोग उनका आश्रय लें तो उन्हें अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। इसमें संदेह नहीं-

'सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शांत उपासीत।'
'एतद् ब्रह्मौतमित: प्रेत्याभिसम्भवितास्मीति।'[2]

इस प्रकार भगवत्प्रेमी महर्षि शाण्डिल्यजी ने भगवान की प्रेमाभक्ति का उपदेश देकर जीवों पर महान अनुग्रह किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्कंदपुराणांतर्गत श्रीमभ्दा० माहात्मय 1।19-26
  2. छांदो० 3।14।1,4

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