महर्षि शाण्डिल्य और उनका भगवत्प्रेम 3

महर्षि शाण्डिल्य और उनका भगवत्प्रेम


आचार्य का अभिमत है कि जीवों का ब्रह्मभावापन्न होना ही मुक्ति है। जीव ब्रह्म से अभिन्न है। उसका आवागमन स्वाभाविक नहीं है, किंतु जपाकुसुम के सानिध्य से स्फाटिकमणि की लालिमा के समान, अंत:करण की उपाधि से ही होता है, किंतु केवल औपाधिक होने के कारण ही वह ज्ञान से नहीं मिटाया जा सकता, उसकी निवृत्ति तो उपाधि और उपाधेय-इन दोनों में से किसी एक की निवृत्ति या सम्बंध छूट जाने से ही हो सकती है। चाहे जितना ऊँचा ज्ञान हो, किंतु जैसे स्फटिकमणि और जपाकुसुम का सांनिध्य रहते लालिमा की निवृत्ति नहीं हो सकती वैसे ही जब तक अंत:करण है, तब तक न तो उपाधि और उपाधेय का सम्बंध छुड़ाया जा सकता है तथा न आवागमन से ही जीव को बचाया जा सकता है।

अत: उपाधि के नाश से ही भ्रम की निवृत्ति हो सकती है। उपाधिनाश के लिये भगवद्भक्ति से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। इस भक्ति से त्रिगुणात्मक अंत:करण का लय होकर ब्रह्मानंद का प्रकाश हो जाता है, इससे आत्मज्ञान की व्यर्थता भी नहीं होती; क्योंकि अश्रध्दारूपी मल को दूर करने के लिये ज्ञान की आवश्यकता होती है। इस प्रकार महर्षि शाण्डिल्य ने भगवद्भक्ति की उपयोगिता और ज्ञान की अपेक्षा उसकी श्रेष्ठता सिद्ध की है।

भक्ति क्या है, इसे बताते हुए वे अपने भक्तिसूत्र में कहते हैं- 'सा परानुरक्तिरीश्वरे' भगवान में परम अनुराग ही भक्ति है अर्थात भगवान के साथ अनन्य प्रेम हो जाना ही भक्ति है। इस अनुराग से ही जीव भगवन्मय हो जाता है, उसका अंत:करण अंत:करण रूप में पृथक न रहकर भगवान में समा जाता है, यही मुक्ति है। भगवान के सर्वोपरि गुण को बताते हुए महर्षि शाण्डिल्य कहते हैं- 'मुख्यं तस्य हि कारुण्यम्' (शाण्डिल्यसूत्र 49) अर्थात भगवान का मुख्य गुण है- कारुण्य या दयालुता। परमात्मा परम दयालु हैं, कृपालु हैं, कृपासागर हैं- इस बात को सदा ध्यान में रखते हुए प्रेमपूर्वक उनकी आराधना करनी चाहिये। इससे भगवद्विश्वास में वृद्धि होगी और भगवान में अनन्य प्रेम होने में परम सहायता प्राप्त होगी। करुणावरुणालय प्रभु करुणा-कृपा की वर्षा कर जीवों का उद्धार कर देते हैं। महर्षि शाण्डिल्यविरचित यह भक्तिसूत्र बड़े ही महत्त्व का है। इसके छोटे-छोटे सूत्रों में भगवत्प्रेम का बड़ा ही निगूढ़ भाव भरा हुआ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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