मन लुवध्यौ हरिरूप निहारि।
जा दिन स्याम अचानक आये, तब तै मोहिं बिसारि।।
इद्रिनि संग लगाइ गयौ ह्याँ, डेरा निकस्यौ झारि।
ऐसे हाल करत री कोऊ, रही अकेली नारि।।
फेरि न मेरी उहिं सुधि लीन्ही, आपु करत मुख भारि।
‘सूर’ स्याम कौं उरहन दैहौ, पठवत काहे न मारि।।1841।।